मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः ।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥16॥
मनः-प्रसादः-मन की प्रसन्नता; सौम्यन्तम्-विनम्रता; मौनम् मौन धारण करना; आत्म-विनिग्रह-आत्म नियन्त्रण; भाव-संशुद्धिः-लक्ष्य की शुद्धि; इति–इस प्रकार; एतत्-ये; तपः-तपस्या; मानसम्-मन की; उच्यते-इस प्रकार से घोषित किया गया है।
Translation
BG 17.16: विचारों की शुद्धता, विनम्रता, मौन, आत्म-नियन्त्रण तथा उद्देश्य की निर्मलता इन सबको मन के तप के रूप में घोषित किया गया है।
Commentary
शरीर तथा वाणी की तुलना में मन का तप अधिक श्रेष्ठ है। यदि हम अपने मन को नियंत्रित करना सीख लेते हैं तब शरीर तथा वाणी स्वतः ही नियंत्रित हो जाएंगे किन्तु यदि हम इसके विपरीत व्यवहार करते हैं तब आवश्यक नहीं कि यह सत्य हो। वस्तुतः किसी व्यक्ति की चेतना को मन की अवस्था ही निर्धारित करती है। श्रीकृष्ण ने श्लोक 6.5 में बताया था-"मन की शक्ति से स्वयं को उन्नत करें और स्वयं को नीचा न समझें क्योंकि तुम्हारा मन तुम्हारा मित्र भी हो सकता है और शत्रु भी।"
मन किसी बगीचे के सदृश हो सकता है जिसे बुद्धिमत्तापूर्ण विकसित किया जा सकता है अथवा जिसे जंगल की तरह रहने दिया जा सकता है। माली अपने खेत को जोतते हैं और इसमें फल, फूल तथा सब्जियों उगाते हैं। इसके साथ-साथ वे यह भी सुनिश्चित करते हैं कि यह खरपतवार से भी मुक्त रहें। इसी प्रकार से हमें अपने मन से नकारात्मक तथा हीन विचारों को निकालते हुए उसे समृद्ध तथा उत्तम विचारों से उन्नत बनाना चाहिए। यदि हम क्रोधायुक्त, द्वेषयुक्त, घृणास्पद, दोषपूर्ण, निर्मम, जटिल तथा आलोचनात्मक विचारों को अपने मन में स्थान देंगें तब इनका हमारे व्यक्तित्व पर दुष्प्रभाव पड़ेगा। हम अपने मन से तब तक कोई भी रचनात्मक कार्य नहीं कर सकते जब तक हम अपने मन को नियंत्रित करना तथा इसे क्रोध, घृणा, वैमनस्य इत्यादि से उत्तेजित होने से दूर रखना सीख लेते। ये वही खरपतवार है जो हमारे हृदयों में दिव्य कृपा के प्रस्फुटन के मार्ग को अवरूद्ध करते हैं।
लोग कल्पना करते हैं कि उनके विचार गोपनीय हैं और मन के भीतर होने के कारण उनका कोई बाह्य महत्व नहीं है तथा वे अन्य लोगों की दृष्टि से परे हैं। वे इस बात को नहीं समझते कि विचार न केवल उनके आंतरिक चरित्र का बल्कि उनके बाह्य चरित्र का भी निर्माण करते हैं। अतः हम किसी को देखकर कहते हैं-"वह बहुत सादा तथा विश्वसनीय व्यक्ति लगता है" और किसी अन्य व्यक्ति के लिए कहते हैं-"वह बहुत ही धूर्त तथा धोखेबाज लगता है उससे तो दूर ही रहो।" प्रत्येक स्थिति में यह विचार ही थे जिन्हें लोगों ने अपने हृदय में प्रश्रय दिया जो मूर्त रूप में उनके व्यक्तित्त्व के रूप में प्रकट हुए। रॉल्फ वॉल्डो इमर्सन ने कहा था कि "हमारे नेत्रों की झलक में, हमारी प्रसन्नताओं में, हमारे अभिवादनों में और हाथों की पकड़ में पूर्ण स्वीकारोक्ति है। हमारे पापकर्म हमें दूषित करते हैं, समस्त अच्छी धारणाओं का विनाश करते हैं। लोग नहीं जानते कि क्यों हमारा विश्वास नहीं करते। वे बुराई आंखों पर परदा डालती है, हमारे कोपलों की लालिमा को मंद करती है, हमारी नाक नीची करवाती है और राजा को कलंकित कर उसके मस्तक पर 'हे मूर्ख, मूर्ख' लिखती है।" विचारों को चरित्र के साथ संबंद्ध करने वाले अन्य सशक्त कथन इस प्रकार हैं
अपने विचारों पर ध्यान दें क्योंकि यही शब्द बन जाते हैं।
अपने शब्दों पर ध्यान दें क्योंकि यही आपकी प्रतिक्रियाएँ बन जाती हैं।
अपनी क्रियाओं पर ध्यान दें क्योंकि यही आपकी आदतें बन जाती हैं।
अपनी आदतों पर ध्यान दें क्योंकि इन्हीं आदतों से आपका चरित्र निर्माण होता है।
अपने चरित्र पर ध्यान दें क्योंकि यही आपका भाग्य बनाता है।
यह समझना महत्वपूर्ण है कि प्रत्येक नकारात्मक विचार जिन्हें हम अपने मन में प्रश्रय देते हैं उनसे हम स्वयं को हानि पहुँचाते हैं। इसी के साथ प्रत्येक सकारात्मक विचार जिनपर हम अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं, से हमारा उत्थान होता है। हेनरी वान डाईक ने अपनी कविता 'थॉटस आर थिंग्स' में इसे विशद रूप से व्यक्त किया है
मैं इसे सत्य मानता हूँ कि सभी विचार क्रियाएँ हैं।
वे शरीर, श्वासों और पंखों से युक्त हैं।
वे जिन्हें हम अपने गोपनीय विचार कहते हैं।
वह चौगुनी गति से पृथ्वी के दूरस्थ स्थान पर।
अपने गौरव और संतापो का त्याग करते हुए पटरियाँ छूटने के समान आगे बढ़ते हैं।
हम विचारों द्वारा अपना भविष्य निर्माण करते हैं।
परंतु ये शुभ या अशुभ हैं।
यह कोई नहीं जानता फिर वे अपनी नियति का चयन करते हैं और बाट जोहते हैं।
प्रेम से प्रेम बढ़ता है और घृणा से घृणा उत्पन्न हैं।
प्रत्येक विचार जिन पर हम अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं उनके फल प्राप्त होते हैं तथा प्रत्येक विचार से हमारे भाग्य का निर्माण होता है। इसी कारण नकारात्मक आवेगों से मन को हटाकर सकारात्मक भावों को अपने भीतर स्थान देने को मन का तप कहा गया है।