Bhagavad Gita: Chapter 13, Verse 15

सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥15॥

सर्व-सभी; इन्द्रिय-इन्द्रियों; गुण-इन्द्रिय विषय का; आभासम्–गोचर; सर्व-सभी; इन्द्रिय-इन्द्रियों से; विवर्जितम्-रहित; असक्तम्-अनासक्त; सर्वभृत्-सबके पालनहार; च-भी; एव–वास्तव में; निर्गुणम्-प्राकृत शक्ति के तीनों गुणों से परे; गुण-भोक्तृ-प्रकृति के तीनों गुणों के भोक्ता; च-यद्दपि।

Translation

BG 13.15: यद्यपि वे समस्त इन्द्रिय विषयों के गोचर हैं फिर भी इन्द्रिय रहित रहते हैं। वे सभी के प्रति अनासक्त होकर भी सभी जीवों के पालनकर्ता हैं। यद्यपि वे निर्गुण है फिर भी प्रकृति के तीनों गुणों के भोक्ता हैं।

Commentary

यह कहने के पश्चात कि भगवान की इन्द्रियाँ सर्वत्र हैं अब श्रीकृष्ण इसके सर्वथा विपरीत कहते हैं कि वे इन्द्रियों से रहित हैं। यदि हम इसे लौकिक तर्क द्वारा समझने का प्रयास करते हैं तब हम इसमें विरोधाभास पाएंगे। हमें यह जानना होगा कि भगवान किस प्रकार से अनगिनत इन्द्रियों से युक्त और इन्द्रियों रहित दोनों कैसे हो सकते हैं? किन्तु बुद्धि से परे दिव्य भगवान के लिए लौकिक तर्क लागू नहीं होता। भगवान एक ही समय में दो विरोधाभासी गुणों के अधिष्ठाता हैं। ब्रह्मवैवर्तकपुराण में वर्णन है

विरुद्धा धर्मों रूपोसा वैश्वर्यात पुरुषोत्तमः 

"परमात्मा असंख्य विरोधाभासी गुणों के संग्रह हैं।" इस श्लोक में श्रीकृष्ण भगवान के स्वरूप में दिखाई देने वाले अनंत विरोधाभासों में से कुछ का उल्लेख करते हैं। वे हमारे समान भौतिक इन्द्रियों से रहित हैं और इसलिए यह कहना उचित है कि उनकी इन्द्रियाँ नहीं हैं। 'सर्वेन्द्रियविवर्जितम' का अर्थ है कि वे भौतिक इन्द्रियों से रहित हैं लेकिन वे दिव्य इन्द्रियों के स्वामी हैं। वे सर्वत्र व्याप्त हैं। परिणामस्वरूप यह कहना भी उचित है कि भगवान की इन्द्रियाँ सर्वत्र हैं। 'सर्वेन्द्रियगुणाभासं' का अर्थ है कि वे इन्द्रियों से कर्म करते हैं और इन्द्रियों के विषयों को भी ग्रहण करते हैं। इन दोनों गुणों सहित भगवान के स्वरूप का श्वेताश्वतरोपनिषद् में वर्णन किया गया है।

अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्मः।

(श्वेताश्वतरोपनिषद्-3.19)

भगवान के भौतिक हाथ, पाँव नेत्र और कान नहीं होते फिर भी वे ग्रहण करते हैं, चलते हैं, देखते हैं और सुनते हैं। आगे श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे सृष्टि के रक्षक हैं और फिर भी उससे विरक्त रहते हैं। विष्णु भगवान के रूप में भगवान सारी सृष्टि का पालन पोषण करते हैं। वे सबके हृदयों में बैठकर उनके कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं और उनका फल देते हैं। भगवान विष्णु के आधिपत्य में ब्रह्मा प्रकृति के नियमों का निर्माण करता है ताकि सृष्टि का संचालन सुचारु रूप से सुनिचित हो सके। विष्णु के आधिपत्य में स्वर्ग के देवता वायु, पृथ्वी, जल, वर्षा आदि की व्यवस्था करते हैं जो कि हमारे जीवन के लिए अनिवार्य है। इसलिए भगवान सबके रक्षक हैं। यद्यपि वे अपने आप में पूर्ण हैं और इसलिए सबसे विरक्त रहते हैं। वेदों में उसे आत्माराम कहकर संबोधित किया गया है जिसका अर्थ यह है कि 'वह जो अपनी आत्मा में रमण करने वाला आत्मानंद है और जिसे कोई भी बाहर की वस्तु की आवश्यकता नहीं पड़ती।' माया अर्थात प्राकृत शक्ति भगवान की दासी है और उनके सुख के लिए उनकी सेवा करती है। इसलिए वे प्रकृति के तीनों गुणों के भोक्ता हैं। एक ही समय पर वह निर्गुण अर्थात तीनों गुणों से परे हैं क्योंकि गुण प्राकृतिक है जबकि भगवान दिव्य हैं।