Bhagavad Gita: Chapter 13, Verse 7

इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥7॥

इच्छा–कामना; द्वेषः-घृणा; सुखम्-सुख, दुःखम्-दुख; सडघातः-सकल; चेतना-शरीर में चेतना; धृतिः-इच्छा शक्ति; एतत्-सब; क्षेत्रम्-कर्मों का क्षेत्र; समासेन–सम्मिलित करना; स-विकारम् विकारों सहित; उदात्रतम्-कहा गया।

Translation

BG 13.7: इच्छा और घृणा, सुख और दुख, शरीर, चेतना और इच्छा शक्ति ये सब कार्य क्षेत्र में सम्मिलित हैं तथा इसके विकार हैं। श्रीकृष्ण अब क्षेत्र के गुणों और उसके विकारों को स्पष्ट करते हैं।

Commentary

शरीरः कर्मक्षेत्र में शरीर सम्मिलित है लेकिन इसमें इसके अतिरिक्त बहुत कुछ सम्मिलित है। शरीर में जन्म से मृत्यु तक छः प्रकार के रूपान्तर होते हैं-अस्ति (गर्भावस्था में जीवन) जायते (जन्म), वर्धते (विकास), विपरिणमाते (प्रजनन), अपक्षीयते (क्षीण होना), विनश्यति (मृत्यु) अर्थात यह गर्भावस्था में रहता है, जन्म लेता है, विकसित होता है, उत्पन्न करता है, क्षीण होता है और अन्त में मृत्यु को प्राप्त होता है। आत्मा के निर्देशानुसार शरीर भगवान या संसार में सुख की खोज करने वाली आत्मा की सहायता करता है। 

चेतनाः यह जीवन दायिनी शक्ति है और आत्मा में स्थित रहती है। यह जब तक शरीर में रहती है उसे जीवन शक्ति प्रदान करती है। यह अग्नि में ऊष्मा उत्पन्न करने की क्षमता के समान है। यदि हम अग्नि में लोहे की छड़ डालते हैं तब छड़ अग्नि से ऊष्मा प्राप्त कर लाल हो जाती है। उसी प्रकार से आत्मा शरीर को चेतना का गुण प्रदान कर उसे सजीव बनाती है इसलिए कृष्ण चेतना को भी क्षेत्र के लक्षण के रूप में सम्मिलित करते हैं। 

इच्छाशक्ति:-यह दृढ़ संकल्प है जो शरीर के घटक तत्त्वों को सक्रिय करती है और उन्हें उपयुक्त दिशा की ओर केन्द्रित करती है। यह इच्छाशक्ति आत्मा को कर्म क्षेत्र द्वारा लक्ष्य प्राप्त करने में समर्थ बनाती है। इच्छा बुद्धि का गुण है जो आत्मा द्वारा सक्रिय होती है। सत्व, रजस और तमसगुण के प्रभाव से इच्छा की विविधताओं का वर्णन 18वें अध्याय के 33वें से 35वें श्लोक में किया गया है। 

कामनाः यह मन और बुद्धि की क्रिया है जो किसी वस्तु के अधिग्रहण, किसी स्थिति और किसी व्यक्ति आदि के लिए लालसा उत्पन्न करती है। शरीर पर चर्चा के दौरान हम कामना को महत्त्व नहीं देते लेकिन कल्पना करें कि यदि कामनाएँ न होती तब जीवन की प्रवृत्ति किस प्रकार से भिन्न होती? इसलिए कर्म क्षेत्र का निर्माण करने वाले परमात्मा ने कामना को इसके अंश के रूप में इसमें सम्मिलित किया और इसलिए इसका विशेष उल्लेख करना स्वाभाविक प्रतीत होता है। बुद्धि किसी पदार्थ की वांछनीयता का विश्लेषण करती है और मन इसकी अभिलाषाओं को प्रश्रय देता है जब किसी को आत्मज्ञान हो जाता है तब सभी लौकिक कामनाएँ शांत हो जाती हैं और फिर शुद्ध मन केवल भगवद्प्राप्ति की कामना को प्रश्रय देने लगता है जबकि लौकिक कामनाएँ बंधन का कारण होती हैं और आध्यात्मिक अभिलाषाएँ मुक्ति की ओर ले जाती हैं।

द्वेषः यह मन और बुद्धि की ऐसी अवस्था है जो ऐसे पदार्थ, व्यक्ति और परिस्थितियों के प्रति विरक्ति उत्पन्न करती है जो उसे अप्रिय लगते हैं और उनसे बचने का प्रयास करती है। 

सुखः यह सुख और आनन्द का भाव है जिसकी अनुभूति मन प्रिय और अनुकूल परिस्थितियों तथा कामनाओं की पूर्ति होने पर करता है। मन सुख की प्राप्ति करता है और इसके साथ आत्मा भी इसे अनुभव करती है क्योंकि इसकी पहचान मन के साथ की जाती है। इसके विपरीत लौकिक सुख आत्मा की क्षुधा को कभी शान्त नहीं कर सकते और वह तब तक असंतुष्ट रहती है जब तक इसे भगवान के दिव्य आनंद की प्राप्ति नहीं होती। 

दुखः यह मानसिक पीड़ा है। मन अप्रिय और प्रतिकूल परिस्थितियों में इसका अनुभव करता है। अब श्रीकृष्ण ऐसे गुण और विशेषताओं का वर्णन करते हैं जो किसी को ज्ञान प्राप्त करने के योग्य बनाते हैं। इस प्रकार कर्म क्षेत्र की क्रियाओं का उद्देश्य पूर्ण होता है जो कि मानव रूप है।