Bhagavad Gita: Chapter 14, Verse 6

तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसक्रेन चानघ ॥6॥

तत्र-इनके मध्य; सत्त्वम्-अच्छाई का गुण; निर्मलत्वात्–शुद्ध होना; प्रकाशकम्-प्रकाशित करना; अनामयम्-स्वास्थ्य और पूर्ण रूप से हष्ट-पुष्ट; सुख-सुख की; सङ्गन-आसक्ति; बध्नाति–बाँधता है; ज्ञान-ज्ञान; सङ्गन-आसक्ति से; च-भी; अनघ-पापरहित, अर्जुन।

Translation

BG 14.6: इनमें से सत्वगुण अर्थात अच्छाई का गुण अन्यों की अपेक्षा शुद्ध होने के कारण प्रकाश प्रदान करने वाला और पुण्य कर्मों से युक्त है। हे निष्पाप अर्जुन! यह आत्मा में सुख और ज्ञान के भावों के प्रति आसक्ति उत्पन्न कर उसे बंधन में डालता है।

Commentary

'प्रकाशकम' शब्द का अर्थ 'प्रकाशित करना' है। 'अनामयम्' शब्द का अर्थ 'स्वास्थ्य और अच्छाइयों से युक्त होना है।' विस्तृत रूप से इसका अर्थ है-'शांत स्वभाव' अर्थात पीड़ा के आंतरिक कारणों, असहजता या दुखों से रहित होना है। सत्वगुण शांत और प्रकाशवान है। सत्वगुण किसी के व्यक्तित्व में सद्गुण उत्पन्न करते हैं और बुद्धि को ज्ञान से आलोकित करते हैं। यह मनुष्य को स्थिर, संतुष्ट, दानी, दयालु, सहायक, और शांत बनाते हैं। यह उत्तम स्वास्थ्य बनाए रखते हैं और हमें रोग मुक्त करते हैं। सत्वगुण शांति और प्रसन्नता के कारण उत्पन्न होते हैं और इनमें आसक्ति होने से ये आत्मा को प्राकृत शक्ति के बंधन में डालते हैं। 

आईए इसे एक उदाहरण के माध्यम से समझे। एक यात्री जंगल से जा रहा था तब तीन डाकुओं ने उस पर हमला किया। पहले डाकू ने कहा कि इसकी हत्या करके इसका सारा धन छीन लेते हैं। दूसरे ने कहा कि इसकी हत्या न करके इसे केवल बांधकर इसकी सारी सम्पत्ति लूट लेते हैं। दूसरे डाकू के परामर्श के अनुसार उन्होंने उसे रस्सियों से बांधकर उसकी सारी सम्पत्ति लूट ली। जब सभी डाकू कुछ दूर आगे निकल गये तब तीसरा डाकू लौटकर उसी स्थान पर आया जहाँ उन्होंने यात्री को बांधा था। उसने यात्री की रस्सियाँ खोल दी और उसे जंगल के किनारे पर ले गया और कहा–'मैं स्वयं यहाँ से बाहर नहीं जा सकता लेकिन यदि तुम इस मार्ग पर आगे चलोगे तब तुम इस जंगल से बाहर निकल पाओगे।' 

पहला डाकू तमोगुणी था जो अज्ञानता का स्वरूप है जो वास्तव में अपनी अंतरात्मा को निर्जीव और निर्बल बनाकर उसका पतन कर जीवात्मा की हत्या करना चाहता था। दूसरा डाकू रजोगुणी है जो कि वासना का स्वरूप है जो जीवों में आसक्ति बढ़ाती है और आत्मा को अनगनित सांसारिक कामनाओं से बांधती है तथा तीसरा डाकू सत्वगुणी था जो अच्छाई का गुण है और जो मनुष्य में बुराइयों को कम करता है तथा भौतिक असुविधाओं को अनुकूल बनाता है एवं आत्मा को सदाचार के मार्ग पर ले जाता है फिर भी सत्व गुण प्राकृत शक्ति के क्षेत्र के भीतर है। इसमें हमारी आसक्ति नहीं होनी चाहिए अपितु इसके विपरीत हमें इसका प्रयोग दिव्यता की अवस्था की ओर कदम बढ़ाने के लिए करना चाहिए। इन तीनों से परे शुद्ध सत्व है जो सत्वगुण की चरम अवस्था है। यह भगवान की दिव्य शक्ति का गुण है जो प्राकृत शक्ति से परे है। जब आत्मा भगवद्प्राप्ति कर लेती है तब भगवान अपनी कृपा से आत्मा को शुद्ध सत्व प्रदान करते हैं तथा इन्द्रिय, मन और बुद्धि को दिव्य बनाते हैं।