Bhagavad Gita: Chapter 8, Verse 22

पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ॥22॥

पुरूषः-परम भगवान; सः-वह; परः-महान, पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; भक्त्या-भक्ति द्वारा; लभ्यः-प्राप्त किया जा सकता है; तु-वास्तव में; अनन्यया-बिना किसी अन्य के; यस्य-जिसके; अन्तः-स्थानि-भीतर स्थित; भूतानि-सभी जीव; येन-जिनके द्वारा; सर्वम्-समस्त; इदम्-जो कुछ हम देख सकते हैं; ततम्-व्याप्त है।

Translation

BG 8.22: परमेश्वर का दिव्य व्यक्तित्व सभी सत्ताओं से परे है। यद्यपि वह सर्वव्यापक है और सभी प्राणी उसके भीतर रहते है तथापि उसे केवल भक्ति द्वारा ही जाना जा सकता है।

Commentary

परमात्मा जो आध्यात्मिक आकाश में अपने दिव्य लोक में निवास करते हैं, वे हमारे हृदय में भी निवास करते हैं और वे भौतिक जगत के प्रत्येक परमाणु में व्याप्त हैं। भगवान सभी स्थानों पर समान रूप से विद्यमान रहते हैं। हम यह नहीं कह सकते कि सर्वव्यापक भगवान कहीं 25 प्रतिशत विद्यमान हैं जबकि वे अपने साकार रूप में शत-प्रतिशत व्याप्त रहते हैं। वे सर्वत्र पूर्ण साकार रूप में शत-प्रतिशत व्याप्त रहते हैं किन्तु हम भगवान की सर्वव्यापकता का लाभ प्राप्त नहीं कर सकते, क्योंकि हमें उनकी अनुभूति नहीं होती। 

शाण्डिल्य ऋषि ने कहा हैगवां सप्रिः शरीरस्थं न करोत्यङ्ग पोषणम्।

(शाण्डिल्य भक्ति दर्शन)

"दूध गाय के शरीर में व्याप्त होता है किन्तु यह दुर्बल अस्वस्थ गाय को स्वस्थ रखने के लिए लाभकारी नहीं होता।" जब गाय दुहने से प्राप्त होने वाले दूध को जमाकर उसे दही में परिवर्तित किया जाता है और उस दही में जब काली मिर्च मिलाकर उसे खिलायी जाती है तब उससे गाय का उपचार होता है। उसी प्रकार से भगवान की सर्वव्यापक उपस्थिति की अनुभूति इतनी घनिष्ठ नहीं होती कि वह हमारी भक्ति को बढ़ा सके। सर्वप्रथम हमारे लिए उनके दिव्य रूप की आराधना करना और अन्तःकरण की शुद्धता को विकसित करना आवश्यक होता है तब हम भगवान की कृपा पाते हैं और उस कृपा से वे अपनी दिव्य योगमाया शक्ति के साथ हमारी बुद्धि, मन और अन्त:करण में व्याप्त हो जाते हैं। तब फिर हमारी इन्द्रियाँ दिव्य होकर भगवान की दिव्यता की अनुभूति करने में समर्थ हो सकती हैं। इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं कि उन्हें केवल भक्ति द्वारा ही जाना जा सकता है। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण बारम्बार भक्ति करने की अनिवार्यता पर बल देते हैं। 

श्लोक 6.47 में उन्होंने कहा था कि वे उनकी भक्ति में तल्लीन रहने वाले भक्त को सब में श्रेष्ठ मानते हैं। इसलिए उन्होंने विशेष रूप से 'अनन्य' शब्द को अत्यन्त महत्व दिया है जिसका अर्थ 'किसी अन्य मार्ग द्वारा भगवान को नहीं जाना जा सकता' है। 

चैतन्य महाप्रभु ने इसका अति सुन्दर वर्णन किया है

"भक्ति मुख निरीक्षत कर्म योग ज्ञान"

(चौतन्य चरितामृत मध्य लीला-22.17) 

"यद्यपि कर्म, ज्ञान और अष्टांग योग भगवद्प्राप्ति के मार्ग हैं किन्तु इन मार्गों में सफलता के लिए भक्ति की सहायता की आवश्यकता पड़ती है।" 

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने भी इसका विशद वर्णन किया है-

कर्म, योग, अरु ज्ञान सब, साधन यदपि बखान।

पै बिनु भक्ति सबै जनु, मृतक देह बिनु प्रान ।। 

(भक्ति शतक-8)

 "यद्यपि कर्म, ज्ञान और अष्टांग योग भगवद्प्राप्ति के साधन हैं किन्तु भक्ति के सम्मिश्रण बिना ये सब निष्प्राण मृत देह के समान हैं।" विभिन्न धर्मग्रंथों में भी ऐसा वर्णन किया गया है।

भक्त्याहमेकया ग्राह्यः श्रद्धयाऽऽत्मा प्रियः सताम्। 

(श्रीमद्भागवतम्-11.14.21) 

"मैं केवल उन भक्तों को प्राप्य हूँ जो श्रद्धा और प्रेम युक्त होकर मेरी भक्ति करते हैं।"

मिलेहिं न रघुपति बिनु अनुरागा, किए जोग तप ज्ञान विरागा 

(रामचरितमानस) 

"यदि कोई अष्टांग योग का अभ्यास करे, तपस्या करे, ज्ञान अर्जित करे और चाहे विरक्ति भाव विकसित करे फिर भी भक्ति के बिना कोई भी कभी भगवान को नहीं प्राप्त कर सकता।"