Bhagavad Gita: Chapter 8, Verse 15

मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् ।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ॥15॥

माम्-मुझे उपेत्य-प्राप्त करके; पुनः-फिर; जन्म-जन्म; दुःख-आलयम्-दुखों से भरे संसार में; आशाश्वतम्-अस्थायी; न कभी नहीं; आप्नुवन्ति–प्राप्त करते हैं; महा-आत्मानः-महान पुरूष; संसिद्धिम् पूर्णता को; परमाम्-परम; गताः-प्राप्त हुए।

Translation

BG 8.15: मुझे प्राप्त कर महान आत्माएँ फिर कभी इस संसार में पुनः जन्म नहीं लेतीं जो अनित्यऔर दुखों से भरा है क्योंकि वे पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर चुकी होती हैं।

Commentary

 भगवद्प्राप्ति का परिणाम क्या होता है। वे सिद्ध पुरुष जो भगवद्परायण हो जाते हैं, वे जन्म मरण के चक्र से मुक्त हो जाते हैं और भगवान के परमधाम में प्रवेश करते हैं। इसलिए वे दुखों से परिपूर्ण मायाबद्ध संसार में पुनः जन्म नहीं लेते। हम जन्म की कष्टदायी प्रक्रिया को सहन करते हैं और असहाय होकर चिल्लाते हैं। शिशु के रूप में जब हमें किसी वस्तु की आवश्यकता होती है जिसे हम बोलकर व्यक्त नहीं कर सकते इसलिए उसे पाने के लिए हम रोते हैं। युवावस्था में दैहिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए हमें संघर्ष करना पड़ता है जिससे हमें मानसिक कष्ट झेलने पड़ते हैं। वैवाहिक जीवन में हमें अपनी जीवन संगिनी के अनोखे स्वभाव से जूझना पड़ता है। जब हम वृद्धावस्था में आते हैं तब हमें शारीरिक दुर्बलता को सहन करना पड़ता है। जीवन भर हमें मानसिक और शारीरिक कष्टों का सामना करना पड़ता है, दूसरों के व्यवहार और प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझना पड़ता है। अन्त में हमें मृत्यु की पीड़ा सहनी पड़ती है। यह सब दुख निरर्थक नहीं है अपितु इनका उद्देश्य भगवान की सृष्टि संचालन की व्यापक अभिकल्पना पर ध्यान से विचार करना है। ये हमें अनुभव कराते हैं कि भौतिक जगत हमारा स्थायी निवास नहीं है अपितु हम जैसी उन जीवात्माओं के लिए सुधार गृह है जो भगवान की ओर पीठ किए हुए हैं अर्थात भगवान से विमुख हैं। यदि हम इस संसार के दुखों को सहन नहीं करते तब फिर हमारे भीतर भगवान को पाने की इच्छा कभी विकसित नहीं हो पाती।

 उदाहरणार्थ यदि हम आग में अपना हाथ डालते हैं तब इसके दो परिणाम होंगे-हमारी त्वचा जलने लगती है और हमारी स्नायु कोशिका मस्तिष्क में पीड़ा की अनुभूति उत्पन्न करती है। त्वचा का जलना अप्रिय घटना है किन्तु पीड़ा की अनुभूति अच्छी होती है। यदि हम पीड़ा का अनुभव नहीं करते तब फिर कैसे आग से हाथ बाहर निकालते और फिर हमें अत्यंत क्षति सहन करनी पड़ती। पीड़ा यह संकेत करती है कि कुछ अनुचित है जिसे सुधारना आवश्यक है। समान रूप से भौतिक जगत में जिन कष्टों को हम झेलते हैं, वे भगवान की ओर से प्राप्त होने वाले संकेत हैं जो यह बोध कराते हैं कि हमारी चेतना दूषित है और हमें अपनी लौकिक चेतना को उन्नत कर उसे भगवान के साथ एकीकृत करना चाहिए। अंततः अपने उत्तम प्रयासों के माध्यम से हम अपनी पसंद के पदार्थों को प्राप्त करने में समर्थ हो सकते हैं। वे लोग जो अपनी चेतना को भगवान से विमुख रखते हैं वे निरन्तर जन्म और मृत्यु के चक्कर में घूमते रहते हैं और जो भगवान की अनन्य भक्ति करते हैं वे उनका परमधाम प्राप्त करते हैं।