Bhagavad Gita: Chapter 6, Verse 3

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥3॥

आरूरूक्षो:-नवप्रशिक्षुः मुने:-मुनि की; योगम्-योगः कर्म बिना आसक्ति के कार्य करना; कारणम्-कारण; उच्यते-कहा जाता है; योगारूढस्य-योग में सिद्धि प्राप्त; तस्य-उसका; एव-निश्चय ही; शमः-ध्यान; कारणम्-कारण; उच्यते-कहा जाता है।

Translation

BG 6.3: जो योग में पूर्णता की अभिलाषा करते हैं उनके लिए बिना आसक्ति के कर्म करना साधन कहलाता है और वे योगी जिन्हें पहले से योग में सिद्धि प्राप्त है, उनके लिए साधना में परमशांति को साधन कहा जाता है।

Commentary

तीसरे अध्याय के तीसरे श्लोक में श्रीकृष्ण ने यह उल्लेख किया था कि आत्म कल्याण के दो मार्ग हैं-पहला 'चिन्तन का मार्ग' और दूसरा 'कर्म का मार्ग।' इनमें से श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म के मार्ग का अनुसरण करने का उपदेश दिया। पाँचवें अध्याय के दूसरे श्लोक में उन्होंने पुनः उसे उत्तम मार्ग बताया। क्या इसका अभिप्राय यह है कि हमें जीवन पर्यन्त कर्म करना चाहिए? इस प्रश्न का पुर्वानुमान कर श्रीकृष्ण इसकी सीमा निर्धारित करते हैं। जब हम कर्मयोग का अनुपालन करते हैं तब यह मन को शुद्धिकरण और आध्यात्मिक ज्ञान की परिपक्वता की ओर ले जाता है। किन्तु एक बार जब हमारा मन शुद्ध हो जाता है और हम योग में पारंगत हो जाते हैं तब हम कर्मयोग का त्याग कर संन्यास ले सकते हैं। फिर लौकिक गतिविधियों का कोई प्रयोजन नहीं रहता और साधना साधन बन जाती है इसलिए हम जिस मार्ग का अनुसरण करें वह हमारी योग्यता को निखारने वाला होना चाहिए। श्रीकृष्ण इस श्लोक में योग्यता के मापदण्ड का वर्णन करते हैं। इसलिए वे कहते हैं कि जो योग की इच्छा रखते हैं उनके लिए कर्मयोग उपयुक्त है और जो योग में उन्नत हैं उनके लिए कर्म संन्यास अधिक उपयुक्त है। योग शब्द लक्ष्य और लक्ष्य तक पहुँचने की प्रक्रिया दोनों को स्पष्ट करता है। जब हम इसे लक्ष्य के रूप में स्वीकार करते हैं तब हम योग शब्द का प्रयोग 'भगवान के साथ एकीकृत होने' के अर्थ के रूप में कर सकते हैं और जब हम इसे प्रक्रिया के रूप में देखते हैं तब योग का अभिप्राय 'भगवान के साथ जुड़ने का मार्ग' हो जाता है। 

दूसरे संदर्भ में योग सीढ़ी के समान है जिस पर चढ़कर हम भगवान तक पहुंचते हैं। सीढ़ी के नीचे के पायों पर लौकिक विषयों में तल्लीन चेतना के साथ आत्मा सांसारिकता में जकड़ जाती है। योग रूपी सीढ़ी आत्मा को इस स्तर से उस स्तर तक ले जाती है जहाँ चेतना दिव्यता में तल्लीन होती है। सीढ़ी के विभिन्न पायों के अलग-अलग नाम हैं लेकिन सबके लिए योग एक सामान्य शब्द है। 'योग-आरुरुक्षो' वे साधक हैं जो भगवान में एकाकार होने की अभिलाषा करते हैं और सीढ़ी पर चढ़ना आरम्भ करते हैं। 'योग-आरुढस्य' वे साधक हैं जो इस सीढ़ी के सबसे ऊपर के पाये तक पहुँच चुके होते हैं। इसलिए हम योग विज्ञान में कैसे उन्नत हो सकें। इसकी विवेचना श्रीकृष्ण अगले श्लोक में करेंगे।