मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥9॥
मत्-चित्ता:-मुझमें मन को स्थिर करने वाले; मत्-गत-प्राणा:-जो अपना जीवन मुझे समर्पित करते हैं; बोधयन्तः-भगवान के दिव्य ज्ञान से प्रकाशित; परस्परम्-एक दूसरे से; कथयन्तः-वार्तालाप करते हुए; च-और; माम्-मेरे विषय में; नित्यम्-सदैव; तुष्यन्ति-संतुष्ट होते हैं; च-और; रमन्ति-आनन्द भोगते हैं; च-भी।
Translation
BG 10.9: मेरे भक्त अपने मन को मुझमें स्थिर कर अपना जीवन मुझे समर्पित करते हुए सदैव संतुष्ट रहते हैं। वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते हुए मेरे विषय में वार्तालाप करते हुए और मेरी महिमा का गान करते हुए अत्यंत आनन्द और संतोष की अनुभूति करते हैं।
Commentary
मन की प्रवृत्ति अपनी अति पसंद की वस्तु में लीन होने की होती है। भगवान के भक्त उनके स्मरण में तल्लीन रहते हैं क्योंकि वे परमेश्वर में अगाध श्रद्धा विकसित करते हैं। ईश्वर की भक्ति उनके जीवन का आधार बन जाती है जिससे उन्हें जीवने को जीने का अर्थ, उद्देश्य और शक्ति प्राप्त होती है। वे भक्त अपने सबसे प्रिय भगवान के स्मरण को उसी प्रकार से आवश्यक मानते हैं, जिस प्रकार मछली को श्वास लेने और जीवित रहने के लिए जल की आवश्यकता होती है।
मानवीय हृदय को क्या अतिप्रिय है इसे उनके मन और शरीर के समर्पण तथा संपत्ति के उपयोग से ज्ञात किया जा सकता है। बाइबल में वर्णन है, "जहाँ तुम अपनी धन-संपत्ति का व्यय करोगे, तुम्हारा मन भी उसी ओर आकर्षित होगा" (मैथ्यू 6.21)।
हम लोगों की चैक बुक और क्रेडिट कार्ड की विवरणी को देखकर यह जान सकते हैं कि उनका अंत:करण किस ओर आकर्षित है। यदि वे विलासिता पूर्ण छुट्टियाँ व्यतीत करते हैं तब ऐसी मौज मस्ती उन्हें अधिक प्रिय लगती है। यदि वे एड्सग्रस्त अफ्रीकी बच्चों के उपचार के लिए धन दान करते हैं तब उनका ध्यान इन कल्याणकारी कार्यों में लीन रहता है। अपने बच्चों के लिए अभिभावकों का प्रेम इस वास्तविकता को दर्शाता है कि वे अपने बच्चों के कल्याण के लिए अपना समय और धन त्याग करने में तैयार रहते हैं। उसी प्रकार से भक्तों का प्रेम भगवान के प्रति उनके समर्पण में प्रकट होता है।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि 'मत्-गत-प्राणा' जिसका तात्पर्य है-'मेरे भक्त अपना जीवन मुझे समर्पित करते हैं।' ऐसे समर्पण से संतोष प्राप्त होता है क्योंकि भक्त अपने कर्मों के फलों को अपने प्रिय भगवान की इच्छा पर छोड़ देते हैं और वे अपने जीवन में आयी सभी प्रकार की परिस्थितियों को भगवान की ओर से उत्पन्न हुई मानते हैं। इसलिए वे अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों को प्रसन्नतापूर्वक भगवान की इच्छा मानकर स्वीकार करते हैं और दोनों को समदृष्टि से देखते हैं। जबकि भक्तों के भगवान के प्रति प्रेम को उपर्युक्त लक्षणों के रूप में दर्शाया गया है परन्तु यह उनके होंठों पर भी प्रकट होता है। वे भगवान की महिमा, नाम, रूप, गुण, लीला, धामों और संतों के गुणगान में अत्यंत मधुर रस प्राप्त करते हैं। इस प्रकार वे कीर्तन और भगवान की महिमा का श्रवण कर उनका प्रेम रस पाते हैं और उसे उसी प्रकार से अन्य भक्तों में बांटते हैं। इस प्रकार से भगवान के दिव्य ज्ञान का बोध अन्य लोगों को करवाने में वे एक-दूसरे की उन्नति में योगदान देते हैं। भगवान की महिमा का व्याख्यान और गान भक्तों को अत्यंत संतोष और आनन्द प्रदान करता है। इस प्रकार वे स्मरण, श्रवण, और गुणगान की प्रक्रिया के माध्यम से भगवान की आराधना करते हैं। यह त्रिधा भक्ति है जिसमें श्रवण, कीर्तन और स्मरण सम्मिलित है। पिछले अध्याय के 14वें श्लोक में पहले ही इसका वर्णन किया जा चुका है। 'उनके भक्त उनकी आराधना कैसे करते हैं?' का वर्णन करने के पश्चात् भगवान श्रीकृष्ण अब उनकी भक्तिमयी गतिविधियों पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे।