आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ॥28॥
आयुधानाम्-शास्त्रों में; अहम्-मैं हूँ; वज्रम्-वज्रः धेनूनाम्-गायों में; अस्मि-हूँ; काम-धुक्-कामधेनू गाय; प्रजनः-सन्तान, उत्पत्ति का कारण; च-तथा; अस्मि-हूँ; कन्दर्पः-कामदेव; सर्पाणाम्-सर्पो में; अस्मि-हूँ; वासुकि:-वासुकि।
Translation
BG 10.28: शस्त्रों में मैं वज्र हूँ और गायों में कामधेनु हूँ, सन्तति के समस्त कारणों में मैं प्रेम का देवता कामदेव और सर्पो में वासुकि हूँ।
Commentary
पुराणों में महान ऋर्षि दधिची के बलिदान से संबंधित कथा का वर्णन मिलता है जोकि इतिहास में अनूठी है। स्वर्ग के राजा इन्द्र से एक बार वृत्रासुर नामक राक्षस ने स्वर्ग का राजपाठ छीन लिया। वृत्रासुर को प्राप्त वरदान के अनुसार उस समय उपलब्ध किसी भी शस्त्र से उसका वध नहीं किया जा सकता था। देवलोक नरेश इन्द्र हताश होकर भगवान शिव की शरण में गये और शिव देवलोक नरेश को भगवान विष्णु के पास ले गये। विष्णु भगवान ने बताया कि महर्षि दधिचि की अस्थियों से बने केवल वज्र नामक शस्त्र से ही वृत्रासुर को मारा जा सकता है। इन्द्र ने तब महर्षि दधिची से प्रार्थना की कि वे अपने प्राणों का महान बलिदान दें ताकि उनकी अस्थियों का प्रयोग वज्र नाम का हथियार बनाने के लिए किया जा सके। दधिची ने प्रार्थना स्वीकार तो कर ली लेकिन उससे पहले उन्होंने सभी पवित्र नदियों की तीर्थ यात्रा पर जाने की इच्छा व्यक्त की। इन्द्र तब सभी पवित्र नदियों का जल एक साथ ले आया ताकि महर्षि दधिचि बिना समय व्यर्थ किए अपनी अभिलाषा पूर्ण कर लें। इसके पश्चात महर्षि दधि ची ने यौगिक पद्धति से अपने प्राण त्याग दिए। फिर दधिची ऋषि की अस्थियों से वज्र नामक हथियार का दिव्य निर्माण किया गया और उस हथियार का प्रयोग कर वृत्रासुर को पराजित करके देवलोक नरेश इन्द्र ने अपना स्वर्ग का राज्य सिंहासन पुनः प्राप्त किया। इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने जानबूझकर अपनी महिमा का प्रतिनिधित्व करने के लिए वज्र के नाम का उल्लेख किया है और इसे विष्णु भगवान के हाथों में सदैव धारण किए जाने वाली गदा और चक्र की अपेक्षा से अधिक महत्व दिया है।
इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया है कि जब मैथुन क्रिया सन्तान की उत्पत्ति के उद्धेश्य से की जाती है तब उसे अपवित्र नहीं कहा जा सकता। कामदेव विपरीत लिंगों में आकर्षण उत्पन्न करने का दायित्व निवर्हन करता है ताकि प्रजनन प्रक्रिया द्वारा सहज रूप से मानव जाति का निरन्तर अस्तित्व बना रहे। इस यौन आकर्षण का मूल भगवान हैं और इसका प्रयोग कामुक आनन्द के लिए न करके केवल योग्य संतान की उत्पत्ति के लिए करना चाहिए। सातवें अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में श्रीकृष्ण ने इसी प्रकार की घोषणा की थी कि वे ऐसे यौन आकर्षण हैं जो सदाचरण और शास्त्रीय आज्ञाओं के विरुद्ध नहीं हैं।