न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कमर्फलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥14॥
न–नहीं; कर्तृत्वम्-कर्त्तापन का बोध; न न तो; कर्माणि-कर्मों के; लोकस्य–लोगों के; सृजति उत्पन्न करता है। प्रभुः-भगवान; न न तो; कर्म-फल-कर्मों के फल; संयोगम् सम्बन्ध; स्वभावः-जीव की प्रकृति; तु-लेकिन; प्रवर्तते-कार्य करते हैं।
Translation
BG 5.14: न तो कर्त्तापन का बोध और न ही कर्मों का सृजन भगवान द्वारा होता है तथा न ही वे कर्मों के फल का सृजन करते हैं। यह सब प्रकृति के गुणों से सृजित होते हैं।
Commentary
इस श्लोक में 'प्रभु' शब्द का प्रयोग भगवान के लिए किया गया है, जो यह इंगित करता है कि वे सारे संसार के स्वामी हैं। वे सर्वशक्तिमान हैं और समस्त ब्रह्माण्ड को नियंत्रित करते हैं। यद्यपि वे ब्रह्माण्ड की गतिविधियों का संचालन करते हैं तथापि वे अकर्ता रहते हैं। वे हमारे कर्मों के न तो संचालक हैं और न ही अच्छे-बुरे में प्रेरक अर्थात् हम अच्छे या बुरे जो भी कार्य करेंगे उसका निर्णय भगवान द्वारा नहीं होता। यदि भगवान हमारे कर्मों के संचालक होते तब उन्हें शुभ और अशुभ कर्मों के निर्देश के लिए शास्त्र रचना करने की आवश्यकता न पड़ती। तब तो सभी शास्त्रों का अंत इन तीन छोटे वाक्यों में हो गया होता हे आत्मा! "मैं तुम्हारे सभी कार्यों का संचालक हूँ, इसलिए तुम्हें यह समझने की आवश्यकता नहीं है कि शुभ और अशुभ कर्म क्या है। मैं तुमसे अपनी इच्छानुसार कर्म कराऊँगा।"
उसी प्रकार भगवान हमारे कर्त्तापन होने के बोध के लिए उत्तरदायी नहीं हैं। यदि भगवान हमारे द्वारा किए गए कार्यों का कर्तव्य करने लगते तब फिर हम उन्हें अपने द्वारा किए गए पाप कर्मों का दोषी ठहराने लगते। वास्तव में आत्मा स्वयं ही अज्ञान के कारण ऐसा अभिमान कर लेती है। यदि आत्मा इस अज्ञान को भी दूर करने का निश्चय कर ले तब भगवान अपनी कृपा से इस अज्ञान को दूर करने में उसकी सहायता करते हैं। अतः कर्त्तापन के बोध को त्यागने का उत्तरदायित्व जीवात्मा का होता है। शरीर प्रकृति के तीन गुणों से निर्मित है और सभी कर्म इन्हीं गुणों के अंतर्गत आते हैं। किन्तु अज्ञानता के कारण आत्मा स्वयं को शरीर मानकर कर्मों के कर्त्तापन के भ्रम में उलझ जाती है जो कि वास्तव में प्रकृति के तीन गुणों द्वारा सम्पन्न होते हैं।