Bhagavad Gita: Chapter 7, Verse 3

मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ॥3॥

मनुष्याणाम् मनुष्यों में; सहस्त्रेषु-कई हजारों में से; कश्चित् कोई एक; यतति-प्रयत्न करता है; सिद्धये-पूर्णता के लिए; यतताम्-प्रयास करने वाला; अपि-निस्सन्देह; सिद्धानाम्-वह जिसने सिद्धि प्राप्त कर ली हो; कश्चित्-कोई एक; माम्–मुझको; वेत्ति-जानता है; तत्त्वतः-वास्तव

Translation

BG 7.3: हजारों में से कोई एक मनुष्य सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है और सिद्धि प्राप्त करने वालों में से कोई एक विरला ही वास्तव में मुझे जान पाता है।

Commentary

 इस श्लोक में 'सिद्धि' शब्द का प्रयोग किया गया है। इस शब्द के कई गुणार्थ और अर्थ हैं। संस्कृत शब्दकोश से लिए गए सिद्धि शब्द के कुछ अर्थ इस प्रकार से हैं-आलौकिक शक्तियों की प्राप्ति, उपलब्धि, सफलता, निष्पादन, पूर्ति, समस्याओं का समाधान, कार्य को सम्पूर्ण करना, उपचार करना, लक्ष्य साधना, परिपक्वता, परम सुख, मोक्ष, असाधारण दक्षता और पूर्णता। श्रीकृष्ण अध्यात्मवाद के लिए पूर्णता शब्द का प्रयोग करते हुए कहते हैं-“हे अर्जुन! असंख्य आत्माओं में से बहुत कम अनुपात में आत्माओं को मानव शरीर प्राप्त होता है। मनुष्य जन्म पाने वालों के बीच केवल कुछ लोग ही पूर्णता के लिए प्रयास करते हैं और हजारों सिद्धावस्था प्राप्त आत्माओं में से मेरी सर्वोच्च स्थिति और दिव्य महिमा से परिचित होने वाली आत्माएँ विरली ही होती हैं।" फिर ऐसी आत्माएँ जो आध्यात्मिक अभ्यास में पूर्णता प्राप्त कर लेती हैं वे भगवान को क्यों नहीं जान सकतीं? इसका कारण यह है कि भक्ति और प्रेममयी समर्पण के बिना भगवान को जान पाना या उसकी अनुभूति करना सम्भव नहीं है। आध्यात्मिक पथ के साधक कर्म, ज्ञान, हठयोग आदि के अभ्यास के साथ भक्ति को सम्मिलित किए बिना वास्तव में भगवान को नहीं जान सकते। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने इस सत्य को कई बार दोहराया है। 

"यद्यपि वे सर्वव्यापक हैं और सभी प्राणी उनमें स्थित हैं तथापि उन्हें केवल भक्ति द्वारा ही जाना जा सकता है।" (8.22) 

"हे अर्जुन! मैं तुम्हारे समक्ष खड़ा हुआ अपने स्वरूप में जो हूँ उसे भक्ति के अलावा अन्य किसी साधन से नहीं देखा जा सकता। इस प्रकार से तुम मेरे दिव्य स्वरूप को देख सकते हो और मेरे ज्ञान के रहस्यों को जान सकते हो।" (11.54)

 "केवल प्रेममयी भक्ति से कोई यह जान पाता है कि मैं वास्तव में क्या हूँ तब वह भक्ति के माध्यम से मेरे दिव्य स्वरूप को जानकर मेरे दिव्य लोक में प्रवेश करता है।" (18.55)

 इस प्रकार से जो आध्यात्मिक साधक अपनी साधना में भक्ति को सम्मिलित नहीं करते और भगवान के संबंध में सैद्धान्तिक ज्ञान तक ही सीमित रहते हैं उन्हें परम सत्य का अनुभवात्मक ज्ञान नहीं हो पाता।

 यह कहने के पश्चात कि कई मनुष्यों में कोई एक ही उन्हें वास्तव में जान पाता है, श्रीकृष्ण अब अपनी भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियों के आयामों का उल्लेख करना आरम्भ कर रहे हैं। वे सर्वप्रथम अपनी अपरा प्रकृति, भौतिक शक्ति का क्षेत्र जोकि निकृष्ट शक्ति होते हुए भी भगवान की शक्ति है, का उल्लेख करते हैं।