Bhagavad Gita: Chapter 7, Verse 4

भूममिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥4॥

भूमिः-पृथ्वी; आप:-जल; अनल:-अग्नि; वायु:-वायुः खम्-आकाश; मन:-मन; बुद्धिः-बुद्धि; एव–निश्चय ही; च-और; अहंकारः-अहम्; इति–इस प्रकार; इयम्-ये सब; मे मेरी; भिन्ना-पृथक्; प्रकृतिः-भौतिक शक्तियाँ; अष्टधा-आठ प्रकार की।

Translation

BG 7.4: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार ये सब मेरी प्राकृत शक्ति के आठ तत्त्व हैं।

Commentary

प्राकृत शक्ति से रचित संसार विचित्र, जटिल और अगाध है। इसे वर्गीकृत और श्रेणीकृत करके हम अपनी परिमित बुद्धि से कुछ न कुछ समझ सकते हैं। हालाँकि इनमें से प्रत्येक श्रेणी की आगे असंख्य उप श्रेणियाँ हैं। आधुनिक विज्ञान में प्रयोग में लायी जा रहीं वर्गीकृत प्रणाली में पदार्थ को तत्त्वों के संयोजन के रूप में देखा जाता है। वर्तमान में 118 तत्त्वों की खोज की गयी है और इन्हें आवधिक सारणी में सम्मिलित किया गया है। सामान्य रूप से भगवद्गीता और वैदिक दर्शन में मूलभूत रूप से अलग-अलग प्रकार के वर्गीकरण का प्रयोग किया गया है। पदार्थ को प्रकृति या भगवान की शक्ति के रूप में देखा जाता है और इस श्लोक में इस शक्ति के आठ खंडों का उल्लेख किया गया है। हम समझ सकते हैं कि यह पिछली शताब्दी में आधुनिक विज्ञान की प्रकृति के प्रकाश में कितनी आश्चर्यजनक और व्यावहारिक है। 

वर्ष 1905 में अपने अनुस मिरबिल पत्रों में अल्बर्ट आइंस्टीन ने पहले द्रव्यमान ऊर्जा समतुल्यता के दृष्टिकोण को प्रतिपादित किया था। उन्होंने कहा कि पदार्थ में शक्ति में परिवर्तित होने की क्षमता होती है और इसे संख्यात्मक रूप से समीकरण E = mc द्वारा निर्धारित किया जा सकता है। यह ज्ञान न्यूटोनियन की पिछली अवधारणा 'ब्रह्माण्ड की रचना ठोस पदार्थों को मिलाकर की गयी है', को मूलभूत रूप से परिवर्तित करता है। इसके पश्चात वर्ष 1920 में नील्स बोर और अन्य वैज्ञानिकों ने क्वांटम सिद्धान्त स्थापित किया जिसके अनुसार पदार्थ की प्रकृति दोहरी कण तरंग को बढ़ाती है। क्वांटम सिद्धान्त, पदार्थ द्वारा ऊर्जा के उत्सर्जन अवशोषण और कणों की गति के साथ संबंधित है। तब से वैज्ञानिक एक एकीकृत क्षेत्र सिद्धान्त की खोज कर रहे हैं जिसमें सभी बलों और पदार्थों को ब्रह्माण्ड के एक क्षेत्र के रूप में समझा जा सकेगा। 

इसी एकीकृत क्षेत्र सिद्धान्त को श्रीकृष्ण ने आधुनिक वैज्ञानिक युग से 5000 वर्ष पूर्व अर्जुन को एकदम सटीक रूप से समझाया था। वे कहते हैं-"अर्जुन! ब्रह्माण्ड में व्याप्त सभी पदार्थों का अस्तित्त्व मेरी माया अर्थात प्राकृत शक्ति की अभिव्यक्तियाँ हैं।" यह केवल मेरी एक ही प्राकृत शक्ति है जो संसार में असंख्य आकारों, रूपों और अस्तित्त्वों में प्रकट होती है। तैत्तिरीयोपनिषद् में इसका विस्तार से इस प्रकार वर्णन किया गया है:

तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः। 

आकाशाद्वायुः। वायोरग्रिः। अग्नेरापः। अद्भ्यः पृथिवी। पृथिव्या औषधयः।

औषधीभ्योऽन्नम्। अन्नात्पुरुषः। स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः। 

(तैत्तिरीयोपनिषद्-2.1.2) 

"भौतिक ऊर्जा का आदि रूप प्रकृति है। जब भगवान संसार के सृजन की इच्छा करते हैं तब वे प्रकृति पर दृष्टि डालते हैं जिससे उसमें विकार उत्पन्न होता है और फिर वह महान में प्रकट होता है" क्योंकि विज्ञान अभी तक शक्ति के सूक्ष्म स्तर तक नहीं पहुंच पाया है और अंग्रेजी भाषा के शब्दकोश में इसके समकक्ष कोई शब्द नहीं है। आगे फिर महान में विकार उत्पन्न होने से अगला तत्त्व अहंकार प्रकट होता है जोकि विज्ञान के जानने योग्य किसी भी ईकाई की तुलना में सूक्ष्म है। अहंकार से पंचतन्मात्राओं की उत्पत्ति होती है। ये पाँच तन्मात्राएँ-स्वाद, स्पर्श, गंध, रूप और शब्द हैं। इनमें से पाँच स्थूल तत्त्व-अंतरिक्ष, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी प्रकट होते हैं।

 इस श्लोक में श्रीकृष्ण इन पाँच स्थूल तत्त्वों को न केवल अपनी शक्ति की अभिव्यक्तियों के भिन्न रूप में सम्मिलित करते हैं अपितु वे मन, बुद्धि और अहंकार को भी अपनी शक्ति के विशिष्ट तत्त्वों के रूप में सम्मिलित करते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये सब उनकी प्राकृत शक्ति माया का केवल अंश ही हैं। इससे परे आत्मा (जीव) शक्ति या भगवान की परा शक्ति है जिसकी व्याख्या वे अगले श्लोक में करते हैं।