Bhagavad Gita: Chapter 7, Verse 26

वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ॥26॥

वेद-जानना; अहम्-मैं; समतीतानि भूतकाल को; वर्तमानानि वर्तमान को; च तथा; अर्जुन-अर्जुन; भविष्याणि भविष्य को; च-भी; भूतानि-सभी जीवों को; माम्-मुझको; तु-लेकिन; वेद-जानना; न-नहीं; कश्चन-कोई हे

Translation

BG 7.26: अर्जुन! मैं भूत, वर्तमान और भविष्य को जानता हूँ और मैं सभी प्राणियों को जानता हूँ लेकिन मुझे कोई नहीं जानता।

Commentary

यहाँ वे स्वयं को त्रिकालदर्शी घोषित करते हैं। उन्हें भूत, वर्तमान और भविष्य की जानकारी है जबकि हम भूल जाते हैं कि कुछ घंटे पूर्व हमने क्या सोचा था? भगवान ब्रह्माण्ड की प्रत्येक जीवात्माओं के अनन्त सभी जन्मों का, उनके जीवन के प्रत्येक क्षण के विचारों, शब्दों और कर्मों का स्मरण रखते हैं। ये हमारे संचित कर्म बनते हैं। भगवान इन सब कर्मों का लेखा जोखा रखते हैं, ताकि वे कर्म नियम के अंतर्गत न्याय प्रदान कर सकें। इसी कारण से वे कहते हैं कि वे भूत, वर्तमान और भविष्य के ज्ञाता हैं। मुंडकोपनिषद् में वर्णन है

यः सर्वज्ञः सर्वविद्यस्य ज्ञानमयं तपः। 

(मुंडकोपनिषद्-1.1.9) 

"भगवान सब कुछ जानने वाले और सर्वज्ञ हैं" 

भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में कहते हैं कि यद्यपि वह सब कुछ जानते हैं किन्तु उन्हें कोई नहीं जानता। भगवान का तेज, वैभव, महिमा, शक्तियाँ, गुण और आयाम अनन्त हैं। हमारी बुद्धि सीमित है और इसलिए ऐसा कोई उपाय नहीं जिससे यह सर्वशक्तिमान भगवान को समझ सके। सभी वैदिक ग्रंथ कहते हैं

नैषा तर्केण मतिरापनेया

 (कठोपनिषद्-1.2.9) 

"भगवान हमारे बौद्धिक तर्क की परिधि से परे हैं।"

यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह। 

(तैत्तिरीयोपनिषद्-2.9.1) 

"हमारा मन और वाणी भगवान तक नहीं पहुँच सकती।" ।

राम अतयं बुद्धि मन बानी।

मत हमार अस सुनहि सयानी।। 

(रामचरितमानस) 

"भगवान की अभिव्यक्ति तर्कों द्वारा नहीं की जा सकती और मन, वाणी और बुद्धि द्वारा उसे पाया नहीं जा सकता।" 

केवल एक ही व्यक्ति भगवान को समझ सकता है जो स्वयं भगवान है। यदि वह किसी जीवात्मा पर अपनी कृपा करके और उसे अपनी बुद्धि दे देता है तब ऐसी भाग्यशाली आत्मा भगवान की शक्ति से सम्पन्न होकर भगवान को जान सकती है। भगवान को जानने के लिए भगवान की कृपा की अवधारणा का महत्व सर्वोपरि है। इस बिन्दु पर आगे 10वें अध्याय के 11वें श्लोक तथा 18वें अध्याय के 58वें श्लोक में विस्तार से चर्चा की गयी है।