Bhagavad Gita: Chapter 12, Verse 10

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव ।।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ॥10॥

अभ्यासे-अभ्यास में; अपि यदि; असमर्थ:-असमर्थ; असि-हो; मत्-कर्म परम-कर्म को मेरे प्रति समर्पित करना; भव-बनो; मत्-अर्थम् मेरे लिए; अपि-भी; कर्माणि-कर्म; कुर्वन्-करते हुए; सिद्धिम् पूर्णता को; अवाप्स्यसि तुम प्राप्त करोगे।

Translation

BG 12.10: यदि तुम भक्ति मार्ग के पालन के साथ मेरा स्मरण करने का अभ्यास नहीं कर सकते तब मेरी सेवा के लिए कर्म करने का अभ्यास करो। इस प्रकार तुम पूर्णता की अवस्था को प्राप्त कर लोगे।

Commentary

भगवान का स्मरण करने के अभ्यास का उपदेश देना उसे स्मरण करने की अपेक्षाकृत अत्यंत सरल है। हमारा मन प्राकृत शक्ति माया से निर्मित है इसलिए यह स्वाभाविक रूप से संसार के भौतिक पदार्थों की ओर भागता है जबकि इसे भगवान में अनुरक्त करने के लिए सावधानीपूर्वक दृढ़ता से प्रयत्न करना आवश्यक होता है। हमें उन उपदेशों का श्रवण करना चाहिए जिनसे हम भगवान का चिंतन कर सकें और हमें अपने कार्यों में व्यस्त रहते हुए भी इच्छापूर्वक उनका अनुपालन करना चाहिए। लेकिन जब भगवान के ध्यान से मन हट जाए तब ऐसी स्थिति में ऐसे लोगों को क्या करना चाहिए जिन्हें दिन में हर समय भगवान का स्मरण रखना कठिन प्रतीत होता है? इसका उत्तर श्रीकृष्ण उपर्युक्त श्लोक में देते हैं। वे जो निरंतर भगवान का स्मरण नहीं कर सकते उन्हें अपने सभी कार्य केवल भगवान की सेवा के लिए करने चाहिए। वे जो भी कार्य करें तब उन्हें यह मनोभावना विकसित करनी चाहिए कि वे सब कार्यों का निष्पादन भगवान के सुख के लिए कर रहे हैं जैसा कि पिछले अध्याय के श्लोक 9.27 और 9.28 में वर्णन किया गया है। घरेलू जीवन में किसी का अधिकतर समय परिवार की देखभाल में व्यतीत होता है। किसी को भी अपना यह कार्य सुचारू रूप से अवश्य करना चाहिए लेकिन अपनी आंतरिक चेतना को भी परिवर्तित करना चाहिए। इन कार्यों को दैहिक आसक्ति और परिवारिक मोह के कारण सम्पन्न करने की अपेक्षा हमें यह चेतना विकसित करनी चाहिए कि परिवार के सभी सदस्य भगवान की संतान हैं और भगवान के सुख के लिए उनकी देखभाल करना हमारा दायित्व है। हमें जीविका अर्जन का कार्य जारी रखना चाहिए लेकिन हमें पुनः अपने कार्यों को सम्पन्न करने की चेतना को परिवर्तित करना चाहिए और फिर हमारा धन अर्जन करने का उद्देश्य सांसारिक सुखों को प्राप्त करने की अपेक्षा इस दृढ़ भावना से युक्त होना चाहिए–'मैं चाहता हूँ कि मैं अपनी और परिवार के सदस्यों की देखभाल के लिए धन इसलिए अर्जित करूंगा जिससे मैं भगवान की भक्ति में लीन होने में समर्थ हो सकूँगा और मैं जो भी धन अर्जित करूँगा उसे भगवान की सेवा के लिए दान करूंगा।' समान रूप में खाने, सोने, स्नान करने आदि जैसी शारीरिक क्रियाओं का त्याग नहीं किया जा सकता किन्तु ऐसा करते हुए भी हम पुनः यह दिव्य चेतना विकसित कर सकते हैं-'मुझे अपने शरीर को स्वस्थ रखना है ताकि मैं अपने शरीर से भगवान की सेवा कर पाऊँ। इसलिए मैं सावधानीपूर्वक इसे स्वस्थ रखने का सभी प्रकार से प्रयास करूंगा।' 

जब हम सभी कार्यों का अभ्यास भगवान के सुख के लिए करते हैं तब स्वाभाविक रूप से हमारे मन का स्वार्थी गतिविधियों में व्यस्त रहना बद होगा और हम उन कार्यों की ओर प्रवृत्त होगें जो अधिक सेवा भक्ति की प्रकृति की होते हैं। इस प्रकार सभी कर्मों का निष्पादन केवल परमात्मा श्रीकृष्ण की संतुष्टि के लिए करना चाहिए जिससे हमारा मन स्थिर होकर शीघ्र भगवान की ओर केन्द्रित होने में समर्थ होगा, तब धीरे-धीरे हमारे हृदय में भगवान का प्रेम प्रकट होगा और हम भगवान का निरंतर चिन्तन करने में सफल होंगे।