Bhagavad Gita: Chapter 12, Verse 5

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥5॥

क्लेशः-कष्ट; अधिकतरः-भरा होना; तेषाम्-उन; अव्यक्त-अव्यक्त के प्रति; आसक्त–अनुरक्त; चेतसाम्-मन वालों का; अव्यक्ता अव्यक्त की ओर; हि-वास्तव में ; गतिः-प्रगति; दुःखम्-दुख के साथ; देह-वद्धिः-देहधारी के द्वारा; अवाप्यते-प्राप्त किया जाता है।

Translation

BG 12.5: जिन लोगों का मन भगवान के अव्यक्त रूप पर आसक्त होता है उनके लिए भगवान की अनुभूति का मार्ग अतिदुष्कर और कष्टों से भरा होता है। अव्यक्त रूप की उपासना देहधारी जीवों के लिए अत्यंत दुष्कर होती है।

Commentary

श्रीकृष्ण पुनः अपने साकार रूप की उपासना की प्राथमिकता को यह कह कर दोहराते हैं कि निराकार ब्रह्म की उपासना का मार्ग कष्टों से परिपूर्ण और अत्यंत दुष्कर चुनौतियों से भरा है।

 निराकार ब्रह्म की उपासना इतनी कठिन क्यों है? इसका प्रथम और महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि हम मनुष्य देहधारी हैं और अनंत जन्मों से साकार रूपों के साथ आचार व्यवहार करने के आदी हो चुके हैं। इसलिए भगवान से प्रेम करने के प्रयास में भी इसी प्रकार से यदि हम भगवान के मनोहारी रूप पर अपने मन को आकर्षित करते हैं तो यह सुगमता से भगवान पर एकाग्र हो जाता है और भगवान के प्रति हमारे अनुराग को बढ़ाता है। अपितु इसके विपरीत निराकार रूप की उपासना की स्थिति में हमारी बुद्धि निराकार रूप को ग्रहण नहीं कर सकती क्योंकि मन और इन्द्रियों के सामने कोई स्थूल पदार्थ नहीं होता जिस पर वे अपना ध्यान केन्द्रित कर सकें। इसलिए भगवान का मनन करने का प्रयास और मन में भगवान की प्रीति को बढ़ाना दोनों कठिन हो जाते हैं। एक अन्य कारण से भी ब्रह्म की आराधना भगवान की उपासना की अपेक्षा कठिन है। इसके अंतर को 'मर्कत किशोर न्याय' अर्थात 'बंदर के बच्चे' और 'मर्जर किशोर न्याय' अर्थात बिल्ली के बच्चे के अन्तर से समझा जा सकता है। अपनी मां के पेट को कसकर पकड़ने का दायित्व बन्दर के बच्चे का ही होता है जबकि इसमें उसकी माँ कोई सहायता नहीं करती। जब मादा बंदर अपने बच्चे को लेकर वृक्ष की एक शाखा से दूसरी शाखा पर छलांग लगाती है तब माँ को कसकर पकड़ने का दायित्व बच्चे पर होता है। यदि वह ऐसा करने में समर्थ नहीं होता तब वह नीचे गिर सकता है। इसके विपरीत बिल्ली का बच्चा बहुत छोटा और कोमल होता है लेकिन उसकी गर्दन के पीछे से उसे मुँह से पकड़ कर एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने का दायित्व बिल्ली का होता है। 

समान रूप से भगवान के निराकार रूप के उपासक की तुलना बंदर के बच्चे से की जा सकती है और साकार रूप के उपासक की तुलना बिल्ली के बच्चे से की जा सकती है। वे जो निराकार ब्रह्म की उपासना करते हैं, अपनी उपासना के मार्ग पर आगे बढ़ने का उत्तरदायित्व उन्हीं पर होता है क्योंकि ब्रह्म उन पर कोई कृपा नहीं करता। ब्रह्म केवल निराकार ही नहीं अपितु निगुर्ण भी है। उसका वर्णन निर्गुण, निर्विशेष और निराकार के रूप में किया गया है। इससे बोध होता है कि ब्रह्म में कृपा का गुण व्यक्त नहीं होता। ज्ञानीजन जो निर्गुण, निर्विशेष और निराकार भगवान की उपासना करते हैं उन्हें केवल अपने स्वयं के प्रयासों पर निर्भर रहना पड़ता है। दूसरी ओर भगवान का साकार रूप करुणा और दया का सागर है। इसलिए भगवान के साकार रूप की उपासना करने वाले भक्त अपनी साधना भक्ति द्वारा भगवान की दिव्य कृपा प्राप्त करते हैं और भगवान अपने भक्तों की रक्षा का दायित्व स्वयं ले लेते हैं। इसी आधार पर श्रीकृष्ण ने नौंवे अध्याय के 31वें श्लोक में यह कहा था-हे कुन्ती पुत्र! निडर होकर यह घोषणा करो कि मेरे भक्त का कभी पतन नहीं होता। श्रीकृष्ण इस कथन की पुष्टि अगले दो श्लोकों में करते हैं।