Bhagavad Gita: Chapter 3, Verse 34

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥34॥

इन्द्रियस्य इन्द्रिय का; इन्द्रियस्य-अर्थ इन्द्रियों के विषयों में; राग-आसक्ति; द्वेषौ-विमुखता; व्यवस्थितौ स्थित; तयोः-उनके; न कभी नहीं; वशम् नियंत्रित करना; आगच्छेत्—आना चाहिए; तौ-उन्हें; हि-निश्चय ही; अस्य-उसके लिए; परिपन्थिनौ शत्रु।

Translation

BG 3.34: इन्द्रियों का इन्द्रिय विषयों के साथ स्वाभाविक रूप से राग और द्वेष होता है किन्तु मनुष्य को इनके वशीभूत नहीं होना चाहिए क्योंकि ये आत्म कल्याण के मार्ग के अवरोधक और शत्रु हैं।

Commentary

यद्यपि श्रीकृष्ण ने पहले यह कहा था कि मन और इन्द्रियाँ अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति द्वारा प्रेरित होती हैं, किन्तु अब वे इन्हें वश में करने की आवश्यकता पर प्रकाश डाल रहे हैं। जब तक हमारा भौतिक शरीर हमारे साथ है तब तक उसकी देखभाल के लिए हमें विषयों का भोग करना पड़ता है। श्रीकृष्ण उपयोग को रोकने के लिए नहीं कहते किन्तु वे आसक्ति और द्वेष के उन्मूलन का अभ्यास करने का उपदेश देते हैं। पूर्वजन्म के संस्कारों का सभी मनुष्यों के जीवन पर निश्चित रूप से गहन प्रभाव पड़ता है लेकिन यदि हम गीता द्वारा सिखायी गयी विधि का अभ्यास करते हैं तब हम अपनी दशा को सुधारने में सफल हो सकते हैं।

 इन्द्रियाँ अपने विषयों की ओर आकर्षित होती हैं और उनके सन्निकर्ष से सुख और दुःख की अनुभूति होती है। जिह्वा स्वादिष्ट व्यंजनों का स्वाद चखना चाहती है और कड़वा स्वाद उसे पसंद नहीं आता। मन बार-बार सुख और दुःख से जुड़े विषयों का चिन्तन करता है। विषयों के सुख के अनुभव से आसक्ति और दुःख के अनुभव से द्वेष उत्पन्न होती है। श्रीकृष्ण अर्जुन को न तो आसक्ति और न ही द्वेष के वशीभूत होने को कहते हैं।

 अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए हमें अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। हमें न तो अनुकूल परिस्थितियों के लिए लोभ करना चाहिए और न ही प्रतिकूल परिस्थितियों की उपेक्षा करनी चाहिए। जब हम मन और इन्द्रियों के रुचिकर और अरुचिकर दोनों विषयों की दासता से मुक्त हो जाते हैं तब हम अपनी अधम प्रकृति से ऊपर उठ जाते हैं और फिर हम अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करते समय सुख और दुःख दोनों में समभाव से रहते हैं। तब हम वास्तव में अपनी विशिष्ट प्रकृति से मुक्त होकर कार्य करते हैं।