इस अध्याय में श्रीकृष्ण यह समझाते हैं कि सभी जीव अपनी स्वाभाविक प्रकृति के गुणों के कारण कार्य करने के लिए बाध्य होते हैं और कोई भी प्राणी एक क्षण के लिए भी अकर्मा नहीं रह सकता। वे जो गेरुए वस्त्र धारण कर बाह्य रूप से वैराग्य प्रदर्शित करते हैं लेकिन आंतरिक रूप से इन्द्रिय विषयों के भोगों के प्रति आसक्ति रखते हैं, वे ढोंगी हैं। जो कर्मयोग का अनुपालन करते हुए बाह्य रूप से निरन्तर कर्म करते रहते हैं लेकिन उनमें आसक्त नहीं होते, वे उनसे श्रेष्ठ हैं। इसके बाद श्रीकृष्ण इस पर बल देते हैं कि सभी जीवित प्राणियों को भगवान की सृष्टि की व्यवस्था के अभिन्न अंग के रूप में अपने दायित्वों का निर्वाहन करना पड़ता है। जब हम भगवान के प्रति आभार व्यक्त करते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं तब ऐसे कर्म यज्ञ बन जाते हैं। यज्ञों का अनुष्ठान वास्तव में स्वर्ग के देवताओं को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है और वे हमें सांसारिक सुख और समृद्धि प्रदान करते हैं। ऐसे यज्ञों के कारण वर्षा होती है और वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है जो जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक है। वे जो इस सृष्टि चक्र में अपने उत्तरदायित्व को स्वीकार नहीं करते, वे पापी हैं। वे केवल इन्द्रिय सुख प्राप्त करने के लिए जीवित रहते हैं और उनका जीवन व्यर्थ हो जाता है।
फिर आगे श्रीकृष्ण कहते हैं कि शेष मानवजाति से भिन्न ऐसी प्रबुद्ध आत्माएँ जो आत्मज्ञान में स्थित रहती हैं, वे शारीरिक उत्तरदायित्वों का पालन करने के लिए बाध्य नहीं होती क्योंकि वे आत्मा के स्तर पर अपने उच्च दायित्वों का निर्वाहन कर रही होती हैं। हालांकि वे अपने सामाजिक दायित्वों का त्याग कर देती हैं जिससे सामान्य मनुष्यों के मन में असमंजस की भावना उत्पन्न होती है जो महापुरुषों के पदचिह्नों पर चलना चाहते हैं। इसलिए ज्ञानी पुरुषों को संसार के अनुसरणार्थ उच्च आदर्श प्रस्तुत करने के लिए बिना किसी प्रयोजन और व्यक्तिगत लाभ के लिए निरन्तर कर्म करना होगा। यह अज्ञानी को अपरिपक्व अवस्था में अपने नियत दायित्वों का त्याग करने से रोकेगा। अतीत में महान राजर्षियों जैसे कि राजा जनक और अन्य राजाओं का यही उद्देश्य था जिन्होंने अपने सांसारिक दायित्वों का निर्वाहन किया था।
तत्पश्चात अर्जुन पूछता है कि लोग अनिच्छा से पापपूर्ण कर्मों में प्रवत्त क्यों होते हैं? क्या उन्हें बलपूर्वक पाप कर्मों में लगाया जाता है। परम प्रभु श्रीकृष्ण बताते हैं कि संसार का सर्वभक्षी पाप-पूर्ण शत्रु केवल काम-वासना है। जिस प्रकार से अग्नि धुंए से ढकी रहती है, दर्पण धूल से ढका रहता है उसी प्रकार से कामना मनुष्य के ज्ञान पर आवरण डाल देती है और उसकी बुद्धि का विनाश कर देती है। फिर श्रीकृष्ण अर्जुन से आह्वान करते हैं कि वह इस कामना रूपी शत्रु का संहार कर दें जो पाप का मूर्तरूप है और अपनी इन्द्रिय, मन और बुद्धि को वश में करें।
Bhagavad Gita 3.1 – 3.2 View commentary »
अर्जुन ने कहा! हे जनार्दन, यदि आप बुद्धि को कर्म से श्रेष्ठ मानते हैं तब फिर आप मुझे इस भीषण युद्ध में भाग लेने के लिए क्यों कहते हो? आपके अनेकार्थक उपदेशों से मेरी बुद्धि भ्रमित हो गयी है। कृपया मुझे निश्चित रूप से कोई एक ऐसा मार्ग बताएँ जो मेरे लिए सर्वाधिक लाभदायक हो।
Bhagavad Gita 3.3 View commentary »
परम कृपालु भगवान ने कहा, हे निष्पाप अर्जुन! मैं पहले ही ज्ञानोदय की प्राप्ति के दो मार्गों का वर्णन कर चुका हूँ। ज्ञानयोग उन मनुष्यों के लिए है जिनकी रुचि चिन्तन में होती है और कर्मयोग उनके लिए है जिनकी रुचि कर्म करने में होती है।
Bhagavad Gita 3.4 View commentary »
न तो कोई केवल कर्म से विमुख रहकर कमर्फल से मुक्ति पा सकता है और न केवल शारीरिक संन्यास लेकर ज्ञान में सिद्धावस्था प्राप्त कर सकता है।
Bhagavad Gita 3.5 View commentary »
कोई भी मनुष्य एक क्षण के लिए अकर्मा नहीं रह सकता। वास्तव में सभी प्राणी प्रकृति द्वारा उत्पन्न तीन गुणों के अनुसार कर्म करने के लिए विवश होते हैं।
Bhagavad Gita 3.6 View commentary »
जो अपनी कर्मेन्द्रियों के बाह्य घटकों को तो नियंत्रित करते हैं लेकिन मन से इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करते हैं, वे निःसन्देह स्वयं को धोखा देते हैं और पाखण्डी कहलाते हैं।
Bhagavad Gita 3.7 View commentary »
हे अर्जुन! लेकिन वे कर्मयोगी जो मन से अपनी ज्ञानेन्द्रियों को नियंत्रित करते हैं और कर्मेन्द्रियों से बिना किसी आसक्ति के कर्म में संलग्न रहते हैं, वे वास्तव में श्रेष्ठ हैं।
Bhagavad Gita 3.8 View commentary »
इसलिए तुम्हें निर्धारित वैदिक कर्म करने चाहिए क्योंकि निष्क्रिय रहने से कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म का त्याग करने से तुम्हारे शरीर का भरण पोषण संभव नहीं होगा।
Bhagavad Gita 3.9 View commentary »
परमात्मा के लिए यज्ञ के रूप में कर्मों का निष्पादन करना चाहिए अन्यथा कर्म इस भौतिक संसार में बंधन का कारण बनेंगे। इसलिए हे कुन्ति पुत्र! भगवान के सुख के लिए और फल की आसक्ति के बिना अपने नियत कर्म करो।
Bhagavad Gita 3.10 View commentary »
सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा ने मानव जाति को उनके नियत कर्तव्यों सहित जन्म दिया और कहा “इन यज्ञों का धूम-धाम से अनुष्ठान करने पर तुम्हें सुख समृद्धि प्राप्त होगी और इनसे तुम्हें सभी वांछित वस्तुएँ प्राप्त होंगी।”
Bhagavad Gita 3.11 View commentary »
तुम्हारे द्वारा सम्पन्न किए गए यज्ञों से देवता प्रसन्न होंगे और मनष्यों और देवताओं के मध्य सहयोग के परिणामस्वरूप सभी को सुख समृद्धि प्राप्त होगी।
Bhagavad Gita 3.12 View commentary »
तुम्हारे द्वारा सम्पन्न यज्ञों से प्रसन्न होकर देवता जीवन निर्वाह के लिए वांछित आवश्यक वस्तुएँ प्रदान करेंगे किन्तु जो प्राप्त उपहारों को उनको अर्पित किए बिना भोगते हैं, वे वास्तव में चोर हैं।
Bhagavad Gita 3.13 View commentary »
आध्यात्मिक मनोवत्ति वाले जो भक्त पहले यज्ञ में अर्पित करने के पश्चात भोजन ग्रहण करते हैं, वे सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाते हैं किन्तु जो अपनी इन्द्रिय तृप्ति के लिए भोजन बनाते हैं, वे वास्तव में पाप अर्जित करते हैं।
Bhagavad Gita 3.14 View commentary »
सभी लोग अन्न पर निर्भर हैं और अन्न वर्षा से उत्पन्न होता हैं, वर्षा यज्ञ का अनुष्ठान करने से होती है और यज्ञ निर्धारित कर्मों का पालन करने से सम्पन्न होता है।
Bhagavad Gita 3.15 View commentary »
वेदों में सभी जीवों के लिए कर्म निश्चित किए गए हैं और वेद परब्रह्म भगवान से प्रकट हुए हैं। परिणामस्वरूप सर्वव्यापक भगवान सभी यज्ञ कर्मों में नित्य व्याप्त रहते हैं।
Bhagavad Gita 3.16 View commentary »
हे पार्थ! जो मनुष्य वेदों द्वारा स्थापित यज्ञ कर्म के चक्र का पालन करने के अपने दायित्व का निर्वाहन नहीं करते, वे पाप अर्जित करते हैं, वे केवल अपनी इन्द्रियों की तृप्ति के लिए जीवित रहते हैं, वास्तव में उनका जीवन व्यर्थ ही है।
Bhagavad Gita 3.17 View commentary »
लेकिन जो मनुष्य आत्मानंद में स्थित रहते हैं तथा जो प्रबुद्ध और पूर्णतया आत्म संतुष्ट होते हैं, उनके लिए कोई नियत कर्त्तव्य नहीं होता।
Bhagavad Gita 3.18 View commentary »
ऐसी आत्मलीन आत्माओं को अपने कर्तव्य का पालन करने या उनसे विमुख होने से कुछ पाना या खोना नहीं होता और न ही उन्हें अपनी निजी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अन्य जीवों पर निर्भर रहने की आवश्यकता होती है।
Bhagavad Gita 3.19 View commentary »
अतः आसक्ति का त्याग कर अपने कार्य को कर्तव्य समझ कर फल की आसक्ति के बिना निरन्तर कर्म करने से ही किसी को परमात्मा की प्राप्ति होती है।
Bhagavad Gita 3.20 – 3.21 View commentary »
राजा जनक और अन्य महापुरुषों ने अपने नियत कर्मों का पालन करते हुए सिद्धि प्राप्त की थी इसलिए तुम्हें भी अपने कर्तव्यों का निर्वाहन करते हुए समाज के कल्याण के लिए अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए। महापुरुष जो भी कर्म करते हैं, सामान्य जन उनका पालन करते हैं, वे जो भी आदर्श स्थापित करते हैं, सारा संसार उनका अनुसरण करता है।
Bhagavad Gita 3.22 View commentary »
हे पार्थ! समस्त तीनों लोकों में मेरे लिए कोई कर्म निश्चित नहीं है, न ही मुझे किसी पदार्थ का अभाव है और न ही मुझमें कुछ पाने की अपेक्षा है फिर भी मैं निश्चित कर्म करता हूँ।
Bhagavad Gita 3.23 View commentary »
यदि मैं सावधानीपूर्वक नियत कर्म नहीं करता तो हे पार्थ! सभी लोगों ने निश्चित रूप से सभी प्रकार से मेरे मार्ग का ही अनुसरण किया होता।
Bhagavad Gita 3.24 View commentary »
यदि मैं अपने निर्धारित कर्म नहीं करता तब ये सभी लोक नष्ट हो जाते और मैं संसार में उत्पन्न होने वाली अराजकता के लिए उत्तरदायी होता और इस प्रकार से मानव जाति की शांति का विनाश करने वाला कहलाता।
Bhagavad Gita 3.25 View commentary »
हे भरतवंशी! जैसे अज्ञानी लोग फल की आसक्ति की कामना से कर्म करते हैं, उसी प्रकार बुद्धिमान मनुष्यों को लोगों को उचित मार्ग की ओर चलने के लिए प्रेरित करने हेतु अनासक्त रहकर कर्म करना चाहिए।
Bhagavad Gita 3.26 View commentary »
ज्ञानवान मनुष्यों को चाहिए कि वे अज्ञानी लोगों को जिनकी आसक्ति सकाम कर्म करने में रहती है, उन्हें कर्म करने से रोक कर उनकी बुद्धि में मतभेद उत्पन्न न करें अपितु स्वयं ज्ञानयुक्त होकर अपने कार्य करते हुए उन अज्ञानी लोगों को भी अपने नियत कर्म करने के लिए प्रेरित करना चाहिए।
Bhagavad Gita 3.27 View commentary »
जीवात्मा देह के मिथ्या ज्ञान के कारण स्वयं को अपने सभी कर्मों का कर्ता समझती है।यद्यपि विश्व के सभी कार्य प्रकृति के तीन गुणों के अन्तर्गत सम्पन्न होते हैं लेकिन अहंकारवश
Bhagavad Gita 3.28 View commentary »
हे महाबाहु अर्जुन! तत्त्वज्ञानी आत्मा की पहचान गुणों और कर्मों से भिन्न करते हैं वे समझते हैं कि 'इन्द्रिय, मन, आदि के रूप में केवल गुण ही हैं जो इन्द्रिय विषयों, (गुणेषु) में संचालित होते हैं और इसलिए वे उनमें नहीं फंसते।
Bhagavad Gita 3.29 View commentary »
वे मनुष्य जो प्रकृति के गुणों के प्रभाव से मोहित होकर फल प्राप्ति की कामना के साथ अपने कर्म करते हैं लेकिन बुद्धिमान पुरुष जो इस परम सत्य को जानते हैं, उन्हें ऐसे अज्ञानी लोगों को विचलित नहीं करना चाहिए जिनका ज्ञान अल्प होता है।
Bhagavad Gita 3.30 View commentary »
अपने समस्त कर्मों को मुझको अर्पित करके और परमात्मा के रूप में निरन्तर मेरा ध्यान करते हुए कामना और स्वार्थ से रहित होकर अपने मानसिक दुखों को त्याग कर युद्ध करो।
Bhagavad Gita 3.31 View commentary »
जो मनुष्य अगाध श्रद्धा के साथ मेरे इन उपदेशों का अनुपालन करते हैं और दोष दृष्टि से परे रहते हैं, वे कर्म के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं।
Bhagavad Gita 3.32 View commentary »
किन्तु जो मेरे उपदेशों में दोष ढूंढते हैं, वे ज्ञान से वंचित और विवेकहीन होते हैं, इन सिद्धान्तों की उपेक्षा करने से वे अपने विनाश का कारण बनते हैं।
Bhagavad Gita 3.33 View commentary »
बुद्धिमान लोग भी अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करते हैं क्योंकि सभी जीव अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति से प्रेरित होते हैं, किसी को दमन से क्या प्राप्त हो सकता है।
Bhagavad Gita 3.34 View commentary »
इन्द्रियों का इन्द्रिय विषयों के साथ स्वाभाविक रूप से राग और द्वेष होता है किन्तु मनुष्य को इनके वशीभूत नहीं होना चाहिए क्योंकि ये आत्म कल्याण के मार्ग के अवरोधक और शत्रु हैं।
Bhagavad Gita 3.35 View commentary »
अपने नियत कार्यों को दोष युक्त सम्पन्न करना अन्य के निश्चित कार्यों को समुचित ढंग से करने से कहीं अधिक श्रेष्ठ होता है। वास्तव में अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मरना दूसरों के जोखिम से युक्त भयावह मार्ग का अनुसरण करने से श्रेयस्कर होता है।
Bhagavad Gita 3.36 View commentary »
अर्जुन ने कहा! हे वृष्णिवंशी, श्रीकृष्ण! इच्छा न होते हुए भी मनुष्य पापजन्य कर्मों की ओर क्यों प्रवृत्त होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसे बलपूर्वक पाप कर्मों में लगाया जाता है।
Bhagavad Gita 3.37 View commentary »
परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं-अकेली काम वासना जो रजोगुण के सम्पर्क में आने से उत्पन्न होती है और बाद में क्रोध का रूप धारण कर लेती है, इसे पाप के रूप में संसार का सर्वभक्षी शत्रु समझो।
Bhagavad Gita 3.38 View commentary »
जैसे अग्नि धुएँ से ढकी रहती है, दर्पण धूल से आवृत रहता है तथा भ्रूण गर्भाशय से अप्रकट रहता है, उसी प्रकार से कामनाओं के कारण मनुष्य के ज्ञान पर आवरण पड़ा रहता है।
Bhagavad Gita 3.39 View commentary »
हे कुन्ती पुत्र! इस प्रकार ज्ञानी पुरुष का ज्ञान भी अतृप्त कामना रूपी नित्य शत्रु से आच्छादित रहता है जो कभी संतुष्ट नहीं होता और अग्नि के समान जलता रहता है।
Bhagavad Gita 3.40 View commentary »
इन्द्रिय, मन और बुद्धि को कामना की प्रजनन भूमि कहा जाता है जिनके द्वारा यह मनुष्य के ज्ञान को आच्छादित कर लेती है और देहधारियों को मोहित करती है।
Bhagavad Gita 3.41 View commentary »
इसलिए हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ! प्रारम्भ से ही इन इन्द्रियों को नियंत्रण में रखकर कामना रूपी शत्रु का वध कर डालो जो पाप का मूर्तरूप तथा ज्ञान और आत्मबोध का विनाशक है।
Bhagavad Gita 3.42 View commentary »
इन्द्रियाँ स्थूल शरीर से श्रेष्ठ हैं और इन्द्रियों से उत्तम मन, मन से श्रेष्ठ बुद्धि और आत्मा बुद्धि से भी परे है।
Bhagavad Gita 3.43 View commentary »
इस प्रकार हे महाबाहु! आत्मा को लौकिक बुद्धि से श्रेष्ठ जानकर अपनी इन्द्रिय, मन और बुद्धि पर संयम रखो और आत्मज्ञान द्वारा कामरूपी दुर्जेय शत्रु का दमन करो।