Bhagavad Gita: Chapter 4, Verse 28

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥28॥

द्रव्ययज्ञाः-यज्ञ में किसी के द्वारा अपनी सम्पत्ति अर्पित करना; तपः-यज्ञाः-यज्ञ के रूप में कठोर तपस्या करना; योगयज्ञः-अष्टांग योग का यज्ञ के रूप में अभ्यास; तथा इस प्रकार; अपरे-अन्य; स्वाध्याय-वैदिक शास्त्रों के अध्ययन द्वारा ज्ञान पोषित करना; ज्ञान-यज्ञाः-दिव्य ज्ञान को यज्ञ में अर्पित करना; च-भी; यतयः-ये सन्यासी; संशित-व्रत:-कठोर प्रतिज्ञा करना।

Translation

BG 4.28: कुछ लोग यज्ञ के रूप में अपनी सम्पत्ति को अर्पित करते हैं। कुछ अन्य लोग यज्ञ के रूप में कठोर तपस्या करते हैं और कुछ योग यज्ञ के रूप में अष्टांग योग का अभ्यास करते हैं और जबकि अन्य लोग यज्ञ के रूप में वैदिक ग्रंथों का अध्ययन और ज्ञान पोषित करते हैं जबकि कुछ कठोर प्रतिज्ञाएँ करते हैं।

Commentary

 सभी मनुष्य अपनी-अपनी प्रकृति, प्रेरणा, कर्मों, व्यवसाय, अभिलाषाओं और संस्कारों अर्थात् पूर्व जन्म की प्रवृत्ति के अनुसार एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। श्रीकृष्ण अर्जुन को यह बोध कराना चाहते हैं कि यज्ञ करने के सैकड़ों रूप हो सकते हैं किन्तु जब सभी प्रकार के यज्ञ भगवान को समर्पित करने के प्रयोजन से किए जाते हैं तब वे मन के शुद्धिकरण और आत्मा के उत्थान का साधन बन जाते हैं। इस श्लोक में उन्होंने तीन प्रकार के यज्ञों के अनुष्ठान का उल्लेख किया है-

द्रव्य यज्ञः इस संसार में कुछ लोगों की धन सम्पदा अर्जित करने में रुचि होती है और वे परमार्थ के प्रयोजन से दान पुण्य करते हैं। ऐसे लोग जटिल व्यवसाय और उद्यमों में संलग्न रहते हैं लेकिन उनका आंतरिक उद्देश्य अपने द्वारा अर्जित धन को भगवान की सेवा में अर्पित करना होता है। इस प्रकार से उनकी अभिलाषा भगवान की सेवा के लिए धन अर्जित करने की होती है। जॉन वेस्ली एक ब्रिटिश उपदेशक और मेथोडिस्ट चर्च के संस्थापक थे। उन्होंने अनुयायियों को यह उपदेश दिया-"जितना धन अर्जित कर सकते हो, करो, जितना बचा सकते हो, बचाओ और जितना दान दे सकते हो, दो।"

योग यज्ञः भारतीय दर्शन में योग दर्शन छः दर्शन शास्त्रों में से एक है। जैमिनि ऋषि ने 'मीमांसा दर्शन', वेदव्यास ने, 'वेदान्त दर्शन', गौतम ऋषि ने 'न्याय दर्शन' कणाद ऋषि ने वैशेषिक दर्शन और कपिल मुनि ने 'सांख्य दर्शन' का प्रवर्तन किया। पतंजलि ऋषि ने योग सूत्र की रचना की। योग दर्शन में पतंजलि ने आध्यात्मिक उन्नति के लिए योग के आठ अंगों का वर्णन किया जिसे अष्टांग योग कहा जाता है। यह पद्धति शारीरिक क्रियाओं से प्रारम्भ होकर मन पर विजय पाने के पर समाप्त होती है। कुछ लोग इस मार्ग को आकर्षक मानते हुए यज्ञ के रूप में इसका अभ्यास करते हैं। पतंजलि योग दर्शन में स्पष्ट वर्णित है-

समाधिासिद्धिरीश्वर प्रणिधानात्।। (पतंजलि योग दर्शन-2.45) 

"योग में पूर्णता प्राप्त करने के लिए तुम्हें भगवान के शरणागत होना होगा" इसलिए जब मनुष्यों में भगवान से प्रेम करना सीखने के लिए अष्टांग योग में रुचि उत्पन्न होती है तब वे अपनी यौगिक क्रियाओं को यज्ञ रूपा भक्ति की अग्नि में आहुति देते हैं। इस यौगिक पद्धति का सुन्दर उदाहरण 'जगद्गुरु कृपालु योग' में मिलता है जिसमें अष्टांग योग की शारीरिक मुद्राओं का अभ्यास भगवान के यज्ञ के रूप में उनके दिव्य नामों के उच्चारण के साथ किया जाता है। इस प्रकार के अभ्यास के परिणामस्वरूप योगाभ्यास करने वाले की शारीरिक, मानसिक और आत्म शुद्धि होती है।

 ज्ञान यज्ञः कुछ लोगों की रुचि ज्ञान का संवर्धन करने में होती है। ऐसी प्रवृत्ति वाले लोग अपना ज्ञान बढ़ाने और भगवान का दिव्य प्रेम पाने के लिए पूर्ण तन्मयता से धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करते हैं। “सा विद्या तन्मतिर्यया" (श्रीमद्भागवतम्-4.29.49) अर्थात् “वास्तविक ज्ञान वह है जो भगवान में हमारी भक्ति को बढ़ाता है।" इस प्रकार से अध्ययनशील साधक जब ज्ञान यज्ञ में संलग्न रहते हैं तब फिर बाद में वे भक्ति रस में सराबोर होकर भगवान के प्रेमपूर्ण मिलन की ओर अग्रसर होते हैं।