Bhagavad Gita: Chapter 4, Verse 33

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥33॥

श्रेयान्–श्रेष्ठ; द्रव्य-मयात्-भौतिक सम्पत्ति; यज्ञात्-यज्ञ की अपेक्षा; ज्ञानयज्ञः-ज्ञान युक्त होकर यज्ञ सम्पन्न करना; परन्तप-शत्रुओं का दमन कर्ता, अर्जुन; सर्वम्-सभी; कर्म-कर्म; अखिलम्-सभी; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; ज्ञाने-ज्ञान में; परिसमाप्यते समाप्त होते हैं।

Translation

BG 4.33: हे शत्रुओं के दमन कर्ता! ज्ञान युक्त होकर किया गया यज्ञ किसी प्रकार के भौतिक या द्रव्य यज्ञ से श्रेष्ठ है। हे पार्थ! अंततः सभी यज्ञों की पराकाष्ठा दिव्य ज्ञान में होती है।

Commentary

श्रीकृष्ण अब पहले वर्णित यज्ञों के उपयुक्त परिप्रेक्ष्य हमारे समक्ष रख रहे हैं। वे अर्जुन को बताते हैं कि शारीरिक क्रियाओं द्वारा भगवान की भक्ति करना उत्तम है किन्तु सर्वोत्तम नहीं है। कर्मकाण्ड, उपवास, मंत्र उच्चारण, तीर्थ स्थान का दर्शन आदि सभी उत्तम कार्य हैं किन्तु अगर इनका कार्यान्वयन ज्ञान के साथ नहीं किया जाता तब ये केवल शारीरिक गतिविधियों तक ही सीमित रह जाते हैं। फिर भी ये शारीरिक गतिविधियाँ कुछ न करने से अच्छी तो होती हैं, किन्तु मन को शुद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं होती। कई लोग इस विश्वास के साथ कि शारीरिक रूप से सम्पन्न किए गए धार्मिक अनुष्ठान ही उन्हें माया के बंधनों से मुक्त करवाने के लिए पर्याप्त हैं इसलिए वे माला फेर कर भगवान के नाम का जाप करते हैं, एकांत में बैठकर धार्मिक ग्रंथों का पाठ करते हैं, तीर्थ स्थानों की यात्रा करते हैं और धार्मिक अनुष्ठान करते हैं। किन्तु संत कबीर ने अति वाक्पटुता से इस विचार का निम्न प्रकार से खण्डन किया है-

श्रीकृष्ण अब पहले वर्णित यज्ञों के उपयुक्त परिप्रेक्ष्य हमारे समक्ष रख रहे हैं। वे अर्जुन को बताते हैं कि शारीरिक क्रियाओं द्वारा भगवान की भक्ति करना उत्तम है किन्तु सर्वोत्तम नहीं है। कर्मकाण्ड, उपवास, मंत्र उच्चारण, तीर्थ स्थान का दर्शन आदि सभी उत्तम कार्य हैं किन्तु अगर इनका कार्यान्वयन ज्ञान के साथ नहीं किया जाता तब ये केवल शारीरिक गतिविधियों तक ही सीमित रह जाते हैं। फिर भी ये शारीरिक गतिविधियाँ कुछ न करने से अच्छी तो होती हैं, किन्तु मन को शुद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं होती। कई लोग इस विश्वास के साथ कि शारीरिक रूप से सम्पन्न किए गए धार्मिक अनुष्ठान ही उन्हें माया के बंधनों से मुक्त करवाने के लिए पर्याप्त हैं इसलिए वे माला फेर कर भगवान के नाम का जाप करते हैं, एकांत में बैठकर धार्मिक ग्रंथों का पाठ करते हैं, तीर्थ स्थानों की यात्रा करते हैं और धार्मिक अनुष्ठान करते हैं। किन्तु संत कबीर ने अति वाक्पटुता से इस विचार का निम्न प्रकार से खण्डन किया है-

माला फेरत युग फिरा, फिरा न मन का फेर।

कर का मनका डारि के, मन का मनका फेर ।।

 "हे आध्यात्मिक साधक तुम कई युगों से मोतियों की माला के मनके फेर रहे हो किन्तु तुम्हारे मन से छल कपट गया नहीं इसलिए इन मोतियों की माला के मनके फेरना छोड़कर मन के मनके को फेरो।" जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज कहते हैं

बंधन और मोक्ष का, कारण मनहि बखान।

याते कौनिउ भक्ति करु, करु मन ते हरिध्यान ।। 

(भक्ति शतक-19) 

"मन ही मोक्ष और बंधन का कारण है। तुम जिस भी रूप से भक्ति करो, मन को भगवान के स्मरण में लगाओ।" भक्ति भावना ज्ञान के संवर्धन से पोषित होती है। उदाहरणार्थ आज तुम्हारे जन्मदिन के उपलक्ष्य में भोज कार्यक्रम का आयोजन किया गया है। लोग तुम्हें शुभकामनाओं सहित उपहार आदि भेंट कर रहे हैं। कोई आकर तुम्हें फटा-पुराना बैग देता है। तुम इसे हेय दृष्टि से देखते हुए अन्य उपहारों के साथ उसकी तुलना करने लगते हो, वह व्यक्ति तुमसे बैग के अन्दर देखने का आग्रह करता है। उसे खोलने पर तुम उसमें 100 रुपये के गुणकों के 100 नोट पाते हो और तुम तुरन्त उस बैग को अपनी छाती से चिपटाकर कहते हो-"मुझे यही सबसे उत्तम उपहार प्राप्त हुआ है।" पदार्थ का ज्ञान होने पर वस्तु से प्रेम हो जाता है। समान रूप से भगवान के ज्ञान को पोषित करना और उनके साथ हमारे संबंध भक्ति की भावनाओं को पुष्ट करता है। इसलिए श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि ज्ञान के साथ किया गया यज्ञ द्रव्य यज्ञ से अधिक श्रेष्ठ है। अब वे ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया का उल्लेख करेंगे।

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