Bhagavad Gita: Chapter 18, Verse 57

चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ॥57॥

चेतसा चेतना द्वारा; सर्व-कर्माणि समस्त कर्म; मयि–मुझको; संन्यस्य-सम्पर्ण; मत्-परः-मुझे परम लक्ष्य मानते हुए; बुद्धि-योगम् बुद्धि को भगवान में एकीकृत करते हुए; उपाश्रित्य-शरण लेकर; मत्-चित्-मेरी चेतना में लीन; सततम्-सदैव; भव-होना।

Translation

BG 18.57: अपने सभी कर्म मुझे समर्पित करो और मुझे ही अपना लक्ष्य मानो, बुद्धियोग का आश्रय लेकर अपनी चेतना को सदैव मुझमें लीन रखो।

Commentary

योग का अर्थ 'जुड़ना' है और बुद्धियोग का अर्थ 'बुद्धि को भगवान के साथ एकीकृत करना' है। बुद्धि का यह एकीकरण तब क्रियाशील होता है जब यह दृढ़ विश्वास हो जाए कि जो भी अस्तित्त्व में है वह सब कुछ भगवान से उत्पन्न हुआ है और उसी से संबद्ध है और उसी की संतुष्टि के लिए है। आइए अब हम अपनी आंतरिक संरचना में बुद्धि की स्थिति को समझें। हमारे शरीर में एक सूक्ष्म अंत:करण है जिसे आम बोलचाल की भाषा में हृदय या ईश्वरीय हृदय भी कहा जाता है। इसके विशेषतः चार स्वरूप हैं। जब इसमें विचार उत्पन्न होते हैं तब हम इसे मन कहते हैं। जब यह विश्लेषण करता है और निर्णय लेता है तब इसे बुद्धि कहा जाता है। जब यह किसी विषय या व्यक्ति में आसक्त हो जाता है तब हम इसे चित्त कहते हैं और जब यह अपनी पहचान शरीर के गुणों के साथ करता है और अभिमानी हो जाता है तब इसे अहंकार कहते हैं। 

इस आंतरिक तंत्र में बुद्धि का स्थान प्रमुख होता है। यह निर्णय लेती है जबकि मन इसके निर्णयों के अनुसार कामनाएँ उत्पन्न करता है और चित्त अनुराग के विषयों में आसक्त हो जाता है। उदाहरणार्थ यदि बुद्धि यह निर्णय करती है कि संसार में सुरक्षा ही अति महत्वपूर्ण विषय है तब मन सदैव जीवन की सुरक्षा की चिन्ता करता है। दिन भर हम अपनी बुद्धि से मन को नियंत्रित करते हैं। इसलिए हमारा क्रोध शांत होता है। मुख्य कार्यकारी अधिकारी निर्देशक पर चिल्लाता है लेकिन इसकी प्रतिक्रिया में निर्देशक उस पर नहीं चिल्लाता क्योंकि बुद्धि को यह बोध होता है कि इससे उसकी जीविका छिन जाएगी और वह अपना क्रोध प्रबंधक पर निकालता है। प्रबंधक निर्देशक के साथ झगड़ा नहीं करता लेकिन उसे फोरमैन पर चिल्लाने से राहत मिलती है। फोरमैन सारा क्रोध श्रमिक को डांट कर उस पर निकालता है। श्रमिक अपनी कुंठा पत्नी पर उतारता है। पत्नी बच्चों पर चिल्लाती है। प्रत्येक स्थिति में हम देखते हैं कि कहाँ क्रोध करना हानिकारक होता है और कहाँ इसका प्रतिघात नहीं होता। उपर्युक्त उदाहरण यह दर्शाते हैं कि हमारी बुद्धि में मन को नियंत्रित करने की क्षमता होती है। इसलिए हमें अपनी बुद्धि को उपयुक्त ज्ञान के साथ पोषित करना चाहिए और इसका प्रयोग इस प्रकार से करें कि यह मन को उचित दिशा की ओर जाने के लिए मार्गदर्शन प्रदान कर सके। इस प्रकार से श्रीकृष्ण का बुद्धियोग से अभिप्राय बुद्धि के दृढ़ निश्चय को इस प्रकार से विकसित करने से है कि सभी पदार्थ भगवान के सुख के लिए हैं। निश्चयात्मक बुद्धियुक्त ऐसे मनुष्य का चित्त सरलता से भगवान में अनुरक्त हो जाता है।