Bhagavad Gita: Chapter 18, Verse 73

अर्जुन उवाच।
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥73॥

अर्जुन उवाच-अर्जुन ने कहा; नष्ट:-दूर हुआ; मोह:-मोह; स्मृति:-स्मरण शक्ति; लब्धा-पुनः प्राप्त हुई; त्वत्-प्रसादात्-आपकी कृपा से; मया मेरे द्वारा; अच्युत-अच्युत, श्रीकृष्ण; स्थितः-स्थित; अस्मि-हूँ; गत-सन्देहः-सारे संशयों से मुक्त; करिष्ये मैं करूँगा; वचनम्-आदेश को; तव-आपके।

Translation

BG 18.73: अर्जुन ने कहाः हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है। अब मैं ज्ञान में स्थित हूँ। मैं संशय से मुक्त हूँ और मैं आपकी आज्ञाओं के अनुसार कर्म करूंगा।

Commentary

प्रारम्भ में अर्जुन किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में था। उस स्थिति में वह अपने कर्तव्य पालन के प्रति उलझन में था। शोकाकुल होकर वह अपने रथ पर एक ओर बैठ गया और उसने अपने शस्त्रों को नीचे रख दिया। वह यह स्वीकार कर लेता है कि वह अपने उन दुःखों का निदान नहीं ढूंढ पा रहा जो उसके शरीर और इन्द्रियों पर आक्रमण कर रहे थे। लेकिन अब वह स्वयं में पूर्णतया परिवर्तन देखता है और घोषित करता है कि वह ज्ञान में स्थित हो गया है और अब वह व्यथित नहीं है। उसने स्वयं को भगवान की इच्छा के अधीन कर दिया और कहा कि वह वही करेगा जैसा श्रीकृष्ण उसे आदेश देंगे। यह उस पर भगवद्गीता के संदेश का ही प्रभाव था। तथापि आगे उसने कहा "त्वत्प्रसादान्मयाच्युत" जिसका यह अर्थ है-“हे श्रीकृष्ण! यह केवल तुम्हारा उपदेश ही नहीं है बल्कि यह आपकी कृपा है जिससे मेरा अज्ञान दूर हुआ है।" 

लौकिक ज्ञान में कृपा की आवश्यकता नहीं होती। हम शिक्षण संस्थानों को या शिक्षकों को शुल्क देकर ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं लेकिन आध्यात्मिक ज्ञान का क्रय विक्रय नहीं किया जा सकता। यह कृपा द्वारा ही प्रदान किया जा सकता है और इसे विनम्रतापूर्वक श्रद्धा से प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार से यदि हम भगवद्गीता पर अभिमान की इस मनोदृष्टि से चर्चा करते हैं कि “मैं अति बुद्धिमान हूँ। मैं इसके संदेश की कुल उपयोगिता का मूल्यांकन करूँगा।" तब हम इसे समझने में कभी समर्थ नहीं हो पाएंगे। हमारी बुद्धि इस ग्रंथ में दोष ढूंढकर उनपर अपना ध्यान केंद्रित करेगी और इसी बहाने से हम संपूर्ण ग्रंथ को त्रुटिपूर्ण मानते हुए अस्वीकार कर देंगे। 

भगवद्गीता पर अनेक भाष्य लिखे गए हैं और इसके दिव्य संदेश के पिछले पाँच हजार वर्षों से असंख्य पाठक हैं लेकिन इनमें से कितने लोग अर्जुन के समान प्रबुद्ध हुए? यदि हम वास्तव में यह ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं तब हमें केवल इसे पढ़ना ही नहीं होगा बल्कि श्रद्धा भावना से युक्त होकर प्रेमपूर्वक समर्पण की मनोभावना से भगवान की कृपा प्राप्त करनी होगी। तब हम उनकी कृपा से भगवद्गीता का अभिप्राय समझ सकेंगे।