यततो ह्यपि कौन्तेय पुरूषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥60॥
यततः-आत्म नियंत्रण का अभ्यास करते हुए; हि-के लिए; अपि-तथपि; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन पुरुषस्य-मनुष्य की; विपश्चितः-विवेक से युक्त; इन्द्रियाणि-इन्द्रियाँ, प्रमाथीन-अशांत; हरन्ति–वश मे करना; प्रसभम् बलपूर्वक; मनः-मन।
Translation
BG 2.60: हे कुन्ति पुत्र! इन्द्रियाँ इतनी प्रबल और अशान्त होती है कि वे विवेकशील और आत्म नियंत्रण का अभ्यास करने वाले मनुष्य के मन को भी अपने वश में कर लेती है।
Commentary
इन्द्रियाँ उस अनियंत्रित जंगली घोड़े के समान हैं जिसकी नयी-नयी कमान कसी गयी हो। ये उतावली और अचेत होती हैं इसलिए इन्हें अनुशासित करना अत्यंत चुनौतीपूर्ण है जिसका सामना साधक को अपने भीतर करना पड़ता है। इसलिए जो आध्यात्मिक विकास की अभिलाषा रखते हैं, उन्हें इन कामुक इन्द्रियों की लगाम कसने पर बल देना चाहिए जो वासना और लालसा के रंग में रंगी होती हैं और इससे भी अधिक ये इतनी शक्तिशली होती हैं कि महान आध्यात्मवादी योगी को आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ने से रोक देती हैं। श्रीमद्भागवतम् में वर्णित एक कथा है जिसमें इस कथन का उपर्युक्त दृष्टांत है (स्कन्ध-9, अध्याय-6, श्लोक-38)। प्राचीनकाल में सौभरि नाम के परम तपस्वी थे जिनका उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है जिसमें प्रदत्त कुछ मंत्रों को सौभरि सूत्र कहा गया है। सौभरि संहिता नाम से भी एक ग्रंथ है। इस प्रकार सौभरि एक साधारण मुनि नहीं थे। सौभरि का अपने शरीर पर इतना नियंत्रण था कि वे यमुना नदी के बीच में जल में डुबकी लगाकर जल के नीचे तपस्या करते थे। एक दिन उन्होंने दो मछलियों को मैथुन क्रिया करते हुए देख लिया। इस दृश्य ने उनके मन और इन्द्रियों को हर लिया और उनमें संभोग करने की इच्छा जागृत हो गयी। उन्होंने तपस्या को बीच में छोड़ दिया और नदी से बाहर निकल आये और अपनी काम-वासना की तृप्ति के संबंध में सोचने लगे। उस समय अयोध्या में मान्धाता नामक राजा, जो बहु-यशस्वी और दयालु शासक था। उसकी पचास कन्याएँ थीं जो सब एक-दूसरे से सुन्दर थीं। सौभरि ने राजा के पास जाकर उससे पचास राजकुमारियों में से एक कन्या उसे सौंपने को कहा। राजा को उस तपस्वी की विवेकशीलता पर आश्चर्य हुआ और वह समझ गया-"यह वृद्ध तपस्वी विवाह करना चाहता है। राजा, तपस्वी सौभरि की शक्ति से परिचित होने के कारण वह भयभीत थे कि यदि उन्होंने सौभरि मुनि के प्रस्ताव को ठुकरा दिया तो वे राजा को श्राप दे देंगे। राजा के लिए इस प्रस्ताव को मानने का अर्थ यह होता कि उसकी एक कन्या का जीवन नष्ट हो जाता। वह दुविधा में पड़ गया। राजा ने कहा, "हे पुण्यात्मा! मुझे आपके आग्रह को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है। कृपया आसन ग्रहण करें, मैं अपनी पचास कन्याओं को आपके सम्मुख प्रस्तुत करता हूँ और जो भी कन्या आपका वरण करेगी, मैं उससे आपका विवाह कर दूंगा।" राजा को विश्वास था कि उसकी कोई भी कन्या उस बूढ़े तपस्वी का चयन नहीं करेगी और इस प्रकार से वह उस मुनि के श्राप से बच जाएगा। सौभरि राजा के अभिप्राय को भली-भांति समझ गया। उन्होंने राजा से कहा कि वे कल आएँगे। संध्या के समय उसने अपनी योग शक्ति द्वारा स्वयं को एक सुंदर नवयुवक के रूप में परिवर्तित कर लिया। अगले दिन जब सौभरि मुनि महल में पहुंचे तब सभी पचास राजकुमारियों ने उन्हें पति के रूप में वरण कर लिया। राजा ने अपने दिए गये वचन से बंधे होने के कारण विवश होकर अपनी सभी कन्याओं का विवाह तपस्वी के साथ कर दिया। अब राजा को अपनी कन्याओं में परस्पर कलह होने की चिन्ता सताने लगी क्योंकि उन्हें एक ही पति के साथ जीवन व्यतीत करना था। सौभरि ने पुनः अपनी योग शक्ति का प्रयोग किया। राजा की आशंका को दूर करने के लिए उसने अपने पचास रूपा धारण कर लिए और अपनी पत्नियों के लिए पचास महल बना दिए और उन सभी के साथ अलग-अलग रहने लगा। इस प्रकार सहस्रों वर्ष व्यतीत हो गए।
पुराणों में उल्लेख है कि सौभरि की उन सभी पत्नियों से अनेक सन्तानों ने जन्म लिया और उनकी आगे और संतानें हुई और यहाँ तक कि एक छोटा नगर बस गया। एक दिन सौभरि के चित्त में विचार आया और वे शोक से कहने लगे “अहो इमं पश्यत मे विनाशं (श्रीमद्भागवतम्9.6.50)" अर्थात हे मनुष्यों! तुम में से जो लौकिक पदार्थों से सुख प्राप्त करना चाहते हैं, वे सावधान हो जाएँ। मेरे अधोपतन की ओर देखें कि पहले मैं कहाँ था और अब मैं कहाँ पर हूँ। मैंने योग शक्ति द्वारा पचास शरीर धारण किए तथा सहस्त्रों वर्षों तक पचास स्त्रियों के साथ रहा फिर भी इन्द्रिय भोगों से तृप्ति नहीं हुई, अपितु और अधिक तुष्टि की लालसा बनी रही। अतः मेरे अधोपतन से शिक्षा लें और सावधान रहकर इस दिशा की ओर न भटकें।"